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३३५७.रासी ऊणे द8, सव्वं णीतं व धण्णखेरि वा।
केण इमं तेणेहिं, असिढे भइतर इमं तु॥ गृहस्वामी ने धान्यराशि को न्यून देखकर सारा धान्य अपहृत हो गया है यह सोचकर अथवा धान्य की खेरी अर्थात् बिखराव को देखकर साधुओं को पूछता है-धान्य कौन ले गया ? साधु बोले-चोर। (यदि चोरों की पहचान बताते हैं तो ग्रहण-आकर्षण आदि दोष होते हैं। यदि साधु कुछ नहीं बताते तो साधुओं पर ही चोरी की शंका होती है। यदि प्रान्त हो तो उसमें अप्रीति आदि दोष होते हैं। ३३५८.लहुगा अणुग्गहम्मि, गुरुगा अप्पत्तियम्मि कायव्वा। __कडुग-फरुसं भणंते, छम्मासा करभरे छेदो॥
यदि गृहस्वामी भद्रक हो तो वह कहेगा आप हमारे घर से भिक्षा अथवा बलि में बचे पदार्थों को ग्रहण करें। आपकी कृपा से मैं संसार सागर से तर जाऊंगा। अन्य वस्तु भी जो आपको स्वेच्छापूर्वक चाहिए वह ग्रहण करें। यदि भद्रक इस प्रकार अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि गृहस्वामी प्रान्त हो और वह अप्रीति करता है तो इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वह कटुक-परुष भाषा बोलता है तो षड्गुरु और यदि वह कहता है-अब हमें 'श्रमणकर' का वहन करना पड़ेगा। इस स्थिति में छेद का प्रायश्चित्त आता है। ३३५९.मूलं सएज्झएसु, अणवठ्ठप्पो तिए चउक्के य।
रच्छा-महापहेसु य, पावति पारंचियं ठाणं॥ यदि पड़ौसी यह जान ले कि श्रमणों ने तिल खाए हैं तो मूल और यदि तिराहों-चौराहों पर यह स्तेनवाद प्रसार पाता है तो अनवस्थाप्य और गलियों में तथा राजमार्ग पर यह प्रवाद फैलता है तो पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। ३३६०.एगमणेगे छेदो, दिय रातो विणास-गरहमादीया।
जं पाविहिंति विहणिग्गतादि वसधिं अलभमाणा॥ यदि सागारिक प्रद्विष्ट हो जाता है तो वह एक साधु अथवा अनेक साधुओं के लिए द्रव्यों का व्यवच्छेद कर देता है। अथवा उनको दिन में या रात में निष्काशित कर देता है। उससे स्तेन तथा श्वापदों द्वारा विनाश होता है। लोगों से गर्दा प्राप्त होती है। अध्वनिर्गत होने पर, कहीं वसति न मिलने पर आत्मविराधना आदि होती है। (ये सारे अगीतार्थ मुनि के दोष हैं।) ३३६१.गीयत्थेसु वि एवं, णिक्कारण कारणे अजतणाए।
कारणे कडजोगिस्सा, कप्पति तिविहाए जतणाए। गीतार्थ मुनि निष्कारण धान्यशाला में रहते हैं और कोई यतना नहीं रखते तो वे भी इन दोषों के भागी होते हैं। यदि
बृहत्कल्पभाष्यम् कृतयोगी अर्थात् गीतार्थ मुनि धान्यशाला में रहे तो तीन प्रकार की यतनाओं सहित रहना कल्पता है। ३३६२.निक्कारणम्मि दोसा, पडिबद्धे कारणम्मि निद्दोसा।
ते चेव अजतणाए, पुणो वि सो लग्गती दोसे॥ धान्यप्रतिबद्ध गृह में निष्कारण रहने पर ये दोष होते हैं। कारणवश यतनापूर्वक रहने पर निर्दोष हैं। कारणवश रहकर यदि यतना नहीं करते हैं तो पूर्वोक्त दोष प्राप्त होते हैं। ३३६३.अद्धाणनिग्गतादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए।
गीतत्था जतणाए, वसंति तो धण्णसालाए। अध्वनिर्गत मुनि तीन बार विशुद्ध वसति की मार्गणा करने पर भी यदि वसति प्राप्त नहीं होती है तब गीतार्थ मुनि धान्यशाला में रहते हैं। ३३६४.तुस-धन्नाई जहियं, णिप्परिसाड-परिसाडगाइं वा।
तेसु पढमं तु ठायति, तेसऽसती दंतखज्जेसु॥ जिन स्थानों में तुषधान्य (वीही-यव आदि) परिशाटित या अपरिशाटित हों, पहले उस उपाश्रय में रहते हैं। वैसे उपाश्रय यदि नहीं मिलते हैं तो दंतखाद्य अर्थात् तिल आदि के धान्यगृहों में रहते हैं। ३३६५.ण वि जोइसं ण गणियं,
ण अक्खरे ण वि य किंचि रक्खामो। अप्पस्सगा असुणगा,
भातणखंभोवमा वसिमो॥ (गृहस्वामी यदि कहे कि आप हमारे बच्चों को अक्षरज्ञान, ज्योतिष आदि सिखायेंगे, घर की सार-संभाल करेंगे तो हम आपको वसति देंगे।) ऐसा कहने पर साधु उसे कहे-हम न ज्योतिष, न गणित और न अक्षरज्ञान सिखायेंगे और न घर की रक्षा करेंगे। हम आपके घर में भाजन और स्तंभ के सदृश होकर रहेंगे तथा हम अपश्यक और अश्रोता बनकर रहेंगे। यदि गृहस्वामी स्वीकार करे तो उस स्थान में रहा जा सकता है। ३३६६.निकारणम्मि एवं, कारणे दुलभे भणंतिम वसभा।
अम्हे ठितेल्लग च्चि, अधापवत्तं वहह तुब्भे॥ कारण के अभाव में भी वहां रह सकते हैं। कारण में यदि शुद्ध वसति दुर्लभ हो तो धान्यशाला में रहते हुए वृषभ गृहस्वामी को कहते हैं-हम यहां स्थित हैं ही, आप भी. यथाप्रवृत्त अपना कार्य करते रहें तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। ३३६७.आमं ति अब्भुवगते,
भिक्ख-वियारादि णिग्गत मिएसु। भणति गुरू सागारिय,
णाउं जे कत्थ किं धण्णं॥
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