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________________ दूसरा उद्देशक यदि गृहस्वामी इसे स्वीकार करता है तो वहां रहे। साथ वाले साधु यदि मृग-अगीतार्थ हों और वे यदि भिक्षाचर्या और विचारभूमी के लिए बाहर गए हुए हों तो गुरु आचार्य उस गृहस्वामी से यह जानकारी लेते हैं कि कहां कौन सा धान्य है। ३३६८.सालीणं वीहीणं, तिल-कुलत्थाण मुग्ग-मासाणं। दिट्ठ मए सण्णिचया, अण्णे देसे कुटुंबीणं॥ ३३६९.एवं च भणितमित्तम्मि कारणे सो भणाति आयरियं। अत्थि महं सण्णिचया, पेच्छह णाणाविहे धण्णे॥ ३३७०.उवलक्खिया य धण्णा, संथाराणं जहाविधि ग्गहणं। जो जस्स उ पाउग्गो, सो तस्स तहिं तु दायव्यो। आचार्य कहते हैं-शाली, व्रीही, तिल, कुलत्थ, मूंग और उड़द-इन धान्यों का अन्य देश में हमने कृषकों के घर में देर देखे हैं। इस प्रकार आचार्य के कहने मात्र से वह गृहस्वामी आचार्य को कहता है मेरे यहां भी धान्य के देर हैं। उनमें आप नाना प्रकार के धान्यों को देखें। आचार्य ने धान्यों के ढ़ेरों को देख लिया। मुनियों के लिए यथाविधि संस्तारकों की व्यवस्था कर ली। जिस मुनि के लिए जो स्थान उपयुक्त हो, उसको वही स्थान दे दिया जाता है। ३३७१.निक्खम-पवेसवज्जण, दूरेण अभाविया तु धण्णाणं। धण्णंतेण परिणता, चिलिमिणि दिवरत्तऽसुण्णं तु॥ जहां गृहस्वामी धान्य लेने के लिए आता-जाता है, उस स्थान को छोड़कर साधुओं को बैठना-सोना चाहिए। अभावित मुनियों को धान्य से दूर रखना चाहिए। जो परिणत हैं वे धान्य के निकट रह सकते हैं। बैठने के स्थान तथा धान्यस्थान के बीच चिलिमिली बांधनी चाहिए। गीतार्थ और परिणामक मुनि दिन-रात, धान्यगृह को अशून्य करते हुए, रह सकते हैं। ३३७२.ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं । जागरमाण वसंती, सपक्खजतणाए गीयत्था॥ ३३७३. ठाणं वा ठायंती, णिसिज्ज अहवा सजागर सुवंति। बहुसो अभिहवेंते, वयणमिणं वायणं देमि॥ वे मुनि वहां रहते हुए विधिपूर्वक संस्तारक ग्रहण करते हैं। गीतार्थ मुनि स्वपक्षयतना के लिए जागते हुए सोते हैं। अथवा वे कायोत्सर्ग करते हैं या बैठे-बैठे सूत्रार्थ की अनुचिंतना करते हैं या जागते हुए शयन करते हैं। यदि कोई मुनि बार-बार धान्य कणों का संघट्टन करता है तो आचार्य उसे कहते हैं-उठो, मैं वाचना दूंगा। ३३७४.फिडियं धण्णटुं वा, जतणा वारेति न उ फुडं बेति। मा णं सोही, अण्णो, णित्थक्को लज्ज गमणादी॥ रात्री में द्वार से भटक गए मुनि को अथवा धान्यभक्षी मुनि का आचार्य यतनापूर्वक वारण करते हैं, परुष वचनों में उपालंभ नहीं देते। क्योंकि दूसरा मुनि कोई सुन न ले, और वह दूसरों को न बता दे। इससे वह मूल मुनि लज्जित न हो तथा वह लज्जा से पलायन आदि न कर दे। ३३७५.दारं न होइ एत्तो, णिहामत्ताणि पुंछ अच्छीणि। भण जं व संकियं ते, गिण्हह वेरत्तियं भंते!॥ द्वार से भटके मुनि को कहे-आर्य! यह द्वार नहीं है। तुम निद्रा प्रमाद में हो, आंखें पौंछों और उनको खोलो। यदि तुम्हारे मन में सूत्र और अर्थ के प्रति कोई शंका हो तो बताओ, हम उसका निराकरण करेंगे। भंते-आर्य! वैरात्रिक काल ग्रहण करो, फिर स्वाध्याय करेंगे। (यह स्वपक्षयतना है।) ३३७६.परपक्खम्मि वि दारं, पिहंति जतणाए दो वि वारेति। तह वि य अठायमाणे, उवेह पुट्ठा व साहिति॥ परपक्ष यतना यह है-उपाश्रय में गाय आदि के प्रवेश की संभावना से यतनापूर्वक द्वार बंद करना चाहिए। तिर्यंच और मनुष्य प्रवेश कर रहे हों तो उनका निवारण करना चाहिए। फिर भी यदि वे धान्य को ग्रहण करने से उपरत न होते हों तो साधुओं को उपेक्षा करनी चाहिए। गृहस्वामी के पूछने पर साधु बता दें कि धान्य का अपहरण किसने किया है? ३३७७.पेहिय पमज्जिया णं, उवओगं काउ सणिय ढक्वेति। तिरिय णर दोन्नि एते, खर-खरि पुं-थी णिसिट्टितरे॥ पहले द्वार की आंखों से प्रत्युपेक्षा करे, फिर रजोहरण से उसका प्रमार्जन करे और उपयोगपूर्वक उस द्वार को ढंक दे। पशु और मनुष्य अथवा दास-दासी अथवा पुरुष और स्त्री, अथवा निसृष्ट-शय्यातर द्वारा जिसका प्रवेश अनुज्ञात है, अनिसृष्ट-जिसका प्रवेश अनुज्ञात नहीं है-ये यदि उस धान्यशाला से धान्यग्रहण करें तो उनकी वर्जना करनी चाहिए। ३३७८.गेण्हतेसु य दोसु वि, वयणमिणं तत्थ बिंति गीयत्था। बहुगं च णेसि धण्णं, किं पगतं होहिती कल्लं॥ धान्यग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुष दोनों को देखकर गीतार्थ मुनि उनको यह वचन कहे-तुम बहुत सारा धान्य ले जा रहे हो, क्या कल कोई प्रकृत-प्रकरण अर्थात् जीमनवार होगा? ३३७९.नीसढेसु उवेहं, सत्थेण व तासिता उ तुण्हिक्का। बहुसो भणाति महिलं, जह तं वयणं सुणति अण्णो॥ यदि निसृष्ट अर्थात् आक्रांतिक चोर धान्य को चुराते हों तो उनकी उपेक्षा करे। शस्त्रों के द्वारा त्रस्त किए जाने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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