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दूसरा उद्देशक
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कहा-चोरों ने इसे विनष्ट किया है। गृहस्वामी ने पूछा-चोरों का यहां आगमन कैसे हुआ? ३३४७.इहरा वि ताव अम्हं,
भिक्खं व बलिं व गिण्हह ण किचिं। एण्हिं खु तारितो मी,
गिण्हह छदेण जा अट्ठो॥ ३३४८.लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिग धम्मकंचुए गुरुगा।
कडुग-फरुसं भणंते, छम्मासा करभरे छेदो॥ यदि गृहस्वामी भद्रक हो तो वह कहेगा-आप हमारे घर से भिक्षा अथवा बलि में बचे पदार्थों को ग्रहण करें। आपकी कृपा से मैं संसार सागर से तर जाऊंगा। अन्य वस्तु भी जो आपको चाहिए वह स्वेच्छापूर्वक ग्रहण करें। यदि भद्रक इस प्रकार अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। यदि गृहस्वामी प्रान्त हो तो वह अप्रीति करता हुआ कहता है ये धर्मकंचुक में प्रविष्ट लुटेरे हैं। इसमें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वह कटुक-परुष भाषा बोलता है तो षड्गुरु
और यदि वह कहता है-अब हमें 'श्रमणकर' का वहन करना पड़ेगा। इस स्थिति में छेद का प्रायश्चित्त आता है। ३३४९.मूलं सएज्झएसु, अणवठ्ठप्पो तिए चउक्के य।
रच्छा-महापथेसु य, पावति पारंचियं ठाणं ।। यदि पड़ौसी यह जान ले कि श्रमणों ने तिल खाए हैं तो मूल और यदि तिराहों-चौराहों पर यह स्तेनवाद प्रसार पाता है तो अनवस्थाप्य और गलियों में तथा राजमार्ग पर यह प्रवाद फैलता है तो पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। ३३५०. चोरु त्ति कडुय दुब्बोडितो त्ति फरुसं हतो सि पव्वावी!।
समणकरो वोढव्वो, जातो णे करभरहताणं॥ 'तुम चोर हो'-यह कटुक वचन है। 'तुम-दुर्मुण्ड हो', हे प्रव्रजित! 'तुम तो मर चुके'-यह परुषवचन है। यदि शय्यातर कहता है-हम 'कर' के भार से मुक्त हैं, किन्तु अब हमें 'श्रमणकर' वहन करना पड़ेगा। (यह स्वपक्षविषयक अयतना है।) ३३५१.परपक्खम्मि अजयणा,दारे उ अवंगुतम्मि चउलहुगा।
पिहणे वि होति लहुगा, जंते तसपाणघातो य॥ परपक्ष विषयक अयतना-द्वार को खुला रखने पर चतुर्लघु और द्वार को बंद न करने पर भी चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। द्वारयंत्र में त्रस प्राणियों की घात होती है। उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। ३३५२.गोणे य साणमादी, वारण लहुगा य जं च अधिकरणं।
खरए य तेणए या, गुरुगा य पदोसओ जं च॥ उस उपाश्रय का द्वार खुला रहने पर गाय प्रवेश कर
धान्य खाती है। कुत्ता आदि प्रवेश कर धान्य को बिखेर देता है या खाता है। उनका निवारण करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा उनका लौटते हए किए जाने वाले अधिकरण (हरितमर्दन आदि) से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। शय्यातर के दास-दासी या चोर धान्य को चुराने के इच्छुक हों और उनको निवारित किया जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। उनके प्रद्विष्ट होने पर जो अभ्याख्यान या परितापन आदि होता है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त भी आता है। ३३५३.तेसि अवारणे लहुगा, गोसे सागारियस्स सिम्मि।
लहुगा य जं च जत्तो, असिढे संकापदं जं च॥ उनकी वर्जना न करने पर और प्रातःकाल गृहस्वामी को कहने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। तदनन्तर गृहस्वामी उन दास-दासियों को जो परितापना, वध-बंधन आदि करता है, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। न कहने पर चतुर्लघु और साधुओं के प्रति शंका होती है, उसमें भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। ३३५४.तिरियनिवारण अभिहणण मारणं जीवघातो णासंते।
खरिया छोभ विसाऽगणि, खरए पंतावणादीया।। पशुओं का निवारण करने पर वे साधु का अभिघात या मारण कर सकते हैं। वहां से पशु पलायन करते हुए जीवघात कर सकते हैं। दासी का निवारित करने पर वह क्षुब्ध होकर साधु पर झूठा आरोप लगा सकती है, विष दे सकती है, वसति को अग्नि लगा सकती है और दास यदि प्रद्विष्ट होता है तो प्रान्तापना आदि कर सकता है। ३३५५.आसन्नो य छणूसवो, कज्जं पि य तारिसेण धण्णेणं।
तेणाण य आगमणं, अच्छह तुण्हिक्कका तेणा॥ चोरों के कोई क्षण (एक दैवसिक उत्सव) अथवा उत्सव (बहुदैवसिक उत्सव) सन्निकट है। उनको वैसे धान्य की आवश्यकता है, जो उस धान्यगृह में है। चोरों का आगमन होता है। यदि साधु कहे कि चोर आए हैं-ऐसे कहना नहीं कल्पता। चोर आकर साधुओं को कहते हैं-मौन बैठे रहो, अन्यथा हम तुमको मार डालेंगे। ३३५६.गहियं च णेहिं धण्णं, घेत्तूण गता जहिं सि गंतव्वं ।
सागारिओ य भणती, सउणी वि य रक्खए णेई॥ ऐसा कहकर चोरों ने धान्य ले लिया। धान्य लेकर उन्हें जहां जाना था, वहां चले गए। प्रातः सागारिक गृहस्वामी आया और बोला-भंते! पक्षी भी अपने नीड की रक्षा करता है, आपने इतना भी नहीं किया, धान्य की रक्षा भी नहीं की।
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