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बृहत्कल्पभाष्यम्
३३३५.रमणिज्जभिक्ख गामो,
वह सागारिक भीतर नहीं जाता। अतः वहां जो धान्यठायामो इहेव वसहि झोसेह। परिशाटन आदि दोष होते हैं, उसे मुनि नहीं जानते। धण्णघराणुण्णवणा,
३३४१.ते तत्थ सण्णिविट्ठा, गहिया संथारगा जधिच्छाए। जति रक्खह देमु तो भंते!॥ णाणादेसी साधू, कासइ चिंता समुप्पण्णा॥ यह ग्राम भिक्षा के लिए रमणीय है, ऐसा सोचकर वहीं ३३४२.अणुहया धण्णरसा, णवरं मोत्तूण सेडगतिलाणं। रहने का मन बना लेते हैं। रहने के लिए वसति की खोज
काहामि कोउहल्लं, पासुत्तेसुं समारो॥ करते हैं। वे एक धान्यगृह की अनुज्ञापना करते हैं। गृहस्वामी वे अगीतार्थ मुनि उस उपाश्रय में स्थित होकर अपनी कहता है-भंते! यदि आप मेरे धान्यगृह की रक्षा करेंगे तो मैं इच्छानुसार वहां संस्तारक ग्रहण करते हैं। साधु नानादेश यहां रहने की अनुज्ञा देता हूं, अन्यथा नहीं।
वाले होते हैं। उन साधुओं में किसी के मन में चिंता उत्पन्न हो ३३३६.वसहीरक्खणवग्गा, कम्मं न करेमो णेव पवसामो। सकती है कि मैंने अनेक धान्यों के रस का अनुभव किया है,
णिच्चिंतो होहि तुमं, अम्हे रत्तिं पि जग्गामो॥ स्वाद चखा है, परंतु अभी तक 'सेडगतिल' अर्थात् सफेद वह गृहस्वामी कहता है-हम इस धान्यशालारूप वसति। तिलों के स्वाद नहीं चखा है। मैं इस अभिलाषा को पूरी की रक्षा के लिए व्यग्र रहते हैं, कृषि आदि कर्म भी नहीं करूंगा। यह सोचकर अन्यान्य साधुओं के सो जाने पर वह करते और न कहीं प्रवास में जाते हैं। तब वे मुनि कहते उन तिलों को खाने लगा। हैं तुम निश्चिन्त रहो। हम रात्री में भी जागते रहेंगे।
३३४३.विगयम्मि कोउहल्ले, छट्ठवतविराहण त्ति पडिगमणं। ३३३७.जोतिस-णिमित्तमादी, छंदं गणियं व अम्ह साधेत्था।
वेहाणस ओहाणे, गिलाण सेधेण वा दिट्ठो॥ अक्खरमादी डिंभे, गाधेस्सह अजतणा सुणणे॥ कुतूहल के मिट जाने पर अर्थात् इच्छा की पूर्ति हो जाने गृहस्वामी कहता है-ज्योतिष, निमित्त आदि तथा पर उस मुनि के मन में यह भावना जाग जाती है कि मैंने छंदशास्त्र, गणितशास्त्र-ये सब आप हमें बताएं। हमारे छठे व्रत की विराधना की है। यह सोचकर वह प्रतिगमन बालकों को अक्षरज्ञान भी आप कराएं।' गृहस्वामी के ऐसा कर देता है, गृहवास में चला जाता है। अथवा फांसी लगा कहने पर यदि मुनि उसे स्वीकार करते हैं तो यह अनुज्ञापना कर मर जाता है अथवा पलायन कर पार्श्वस्थ आदि हो जाता की अयतना है।
है। अथवा तिल खाते हुए उस मुनि को ग्लान या शैक्ष देख ३३३८.अणुण्णवण अजतणाए, पउत्थ सागारिए घरे चेव। लेता है।
तेसिं पि य चीयत्तं, सागारियवज्जियं जातं॥ ३३४४.दट्टण वा गिलाणो, खुधितो भुजेज्ज जा विराधणता। अनुज्ञापना की अयतना से साधुओं का उस धान्यगृह में
एमेव सेधमादी, भुंजे अप्पच्चयो वा सिं॥ रह जाने पर गृहस्वामी कहीं प्रवास में चला जाता है। उसके ग्लान उस मुनि को तिल खाते हुए देखकर स्वयं भूख को घर चले जाने पर साधुओं को भी प्रसन्नता होती है कि शांत करने के लिए तिल खा लेता है। उससे ग्लान के अच्छा हुआ यह धान्यशाला सागारिकरहित हो गई। परितापना आदि विराधना होती है। इसी प्रकार शैक्ष मुनि भी ३३३९.तेसु ठिएसु पउत्थो, अच्छंतो वा वि ण वहती तत्तिं।। तिल खा लेते हैं। उनके मन में अप्रत्यय होता है, साधु-संघ
जति वि य पविसितुकामो,तह वि य ण चएति अतिगंतुं। के प्रति अविश्वास उत्पन्न हो जाता है। ३३४०.संथारएहि य तहिं, समंततो आतिकिण्ण विइकिण्णं। ३३४५.उड्डाहं व करेज्जा, विप्परिणामो व होज्ज सेहस्स। सागारितो ण एती, दोसे य तहिं ण जाणाती॥
गेण्हतेण व तेणं, सव्वो पुंजो समारो॥ साधुओं के वहां स्थित होने पर सागारिक निश्चिन्त ३३४६.फेडिय मुद्दा तेणं, कज्जे सागारियस्स अतिगमणं। होकर प्रवास में चला जाता है अथवा वहां रहता हुआ भी
केण इमं तेणेहिं, तेणाणं आगमो कत्तो॥ धान्य की चिन्ता नहीं करता। अथवा वह धान्य की सार- शैक्ष मुनि तिलखादक का उड्डाह करते हैं, वे विपरिणत संभाल करने वहां प्रवेश करना चाहता है, फिर भी वह वहां हो जाते हैं। वह तिलखादक मुनि तिल खाते-खाते सारा प्रवेश नहीं कर सकता क्योंकि वह वहां उपाश्रय में तिलपुंज खाने लगा। उसने तिलों पर लगी मुद्रा को मिटा संस्तारकों को चारों ओर अतिकीर्ण-एक के बाद एक बिछे डाला। उस दिन किसी प्रयोजनवश गृहस्वामी ने वहां प्रवेश हुए देखकर तथा व्यतिकीर्ण-अस्त-व्यस्त बिछे हुए देखकर किया। उसने तिलपुंज को विनष्ट देखकर पूछा। साधुओं ने १. झोसेह-देशीवचनत्वाद् गवेषयत। (वृ. पृ. ९३७
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