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दूसरा उद्देशक
जहां देशग्रहण है वहां अवशिष्ट सारे पद सूचित हैं-ऐसा जानना चाहिए। कहीं-कहीं अनुयोगधर आचार्य अधिकारप्रस्तुत अर्थ को छोड़कर, सूत्रानुपाती प्रसंगवश आए हुए अर्थ का निरूपण करते हैं। ३३२६.उस्सग्गेणं भणियाणि जाणि अववादतो तु जाणि भवे। ___कारणजातेण मुणी!, सव्वाणि वि जाणितव्वाणि॥
जितने उत्सर्गसूत्र हैं या जितने अपवादसूत्र हैं, हे मुने! तुम उन सबको सकारण जानो। कारण का अर्थ है-प्रतिषिद्ध के आचरण का हेतु। सभी सूत्र उत्सर्ग और अपवाद-इन दोनों में निबद्ध हैं, ऐसा जानना चाहिए।
(उत्सर्गसूत्र में साक्षात् उत्सर्ग विषय का निबंध है, अर्थ के आधार पर कारण में उसकी अनुज्ञा भी है। अपवादसूत्र में कारण के उल्लेखपूर्वक अपवाद विषय का निबंध है, अर्थ के आधार पर वहां भी उत्सर्ग ज्ञातव्य है।) ३३२७.उस्सग्गेण निसिद्धाइं जाई दव्वाइं संथरे मुणिणो।
कारणजाते जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति॥ उत्सर्गरूप में संस्तरण के आधार पर जिन द्रव्यों के ग्रहण का मुनि के लिए निषेध है, वे ही द्रव्य 'कारणजात' अर्थात् विशुद्ध आलंबन के कारण सारे ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं, लेने कल्पते हैं। ३३२८.जं चिय पए णिसिद्धं,
तं चिय जति भूतो कप्पती तस्स। एवं होतऽणवत्था,
___ण य तित्थं णेव सच्चं तु॥ साधु के लिए जिसका ग्रहण पहले निषिद्ध किया गया था, यदि उसी का ग्रहण कल्पता है तो इस प्रकार अनवस्था दोष होता है। इससे न तो तीर्थ की अव्यवच्छित्ति होती है
और न सत्य-संयम की आराधना होती है। ३३२९.उम्मत्तवायसरिसं, खु दंसणं ण वि य कप्पऽकप्पं तु।
अध ते एवं सिद्धी, ण होज्ज सिद्धी उ कस्सेवं॥ __ भंते! आपका यह दर्शन उन्मत्तव्यक्ति के वाक्य सदृश है। तथा यहां यह कल्प्य है और यह अकल्प्य है-ऐसी व्यवस्था भी नहीं है। यदि इस प्रकार भी आपके अभिप्रेतार्थ की सिद्धि होती है तो वैसी प्रयोजन-सिद्धि किसके नहीं होती? असंबद्ध वचन कहने वाले चरक-परिव्राजकों के भी वह होती ही है। १. जैन शासन में जो मुनि समर्थ है उसके लिए अकल्प्य का प्रतिषेध है
और जो असमर्थ है, उसके लिए वही विहित है। वैद्यक शास्त्र में भी कहा है
उत्पद्येत हि साऽवस्था, देशकालाऽऽमयान् प्रति। यस्यामकार्य कार्य स्यात्, कर्म कार्यं च वर्जयेत्॥
३३३०.ण वि किंचि अणुण्णायं,पडिसिद्धं वा वि जिणवरिदेहि।
एसा तेसिं आणा, कज्जे सच्चेण होतव्वं ॥ आचार्य बोले-शिष्य! जिनेश्वरदेव ने कारण के अभाव में कुछ भी अकल्पनीय की अनुज्ञा नहीं दी और कारण में कुछ भी प्रतिषिद्ध नहीं किया है। तीर्थंकरों की यह आज्ञा है कि वास्तविक कारण के प्रसंग में सत्यदर्शी होना चाहिए, माया से कुछ नहीं करना चाहिए। ३३३१.दोसा जेण निरुब्भंति जेण खिज्जंति पुव्वकम्माइं।
सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं वा॥ जिस अनुष्ठान से दोषों-राग आदि का निरोध होता है, जिससे पूर्व कर्मों का क्षय होता है, वह अनुष्ठान मोक्ष का उपाय है, जैसे रोगावस्था में उसके शमन के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान। (इसी प्रकार उत्सर्ग में उत्सर्ग का और अपवाद में अपवाद का समाचरण करते हुए श्रमण के लिए वे मोक्ष के उपाय ही हैं।) ३३३२.अग्गीयस्स न कप्पइ, तिविहं जयणं तु सो न जाणइ।
अणुन्नवणाए जयणं, सपक्ख-परक्खजयणं च॥ अगीतार्थ मुनि को बीजाकीर्ण उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता क्योंकि वह तीनों प्रकार की यतना को नहीं जानता। तीन यतनाएं ये हैं-अनुज्ञापना यतना, स्वपक्ष यतना और परपक्ष यतना। ३३३३.निउणो खलु सुत्तत्थो,
ण हु सक्को अपडिबोधितो णाउं। ते सुणह तत्थ दोसा,
जे तेसिं तहिं वसंताणं॥ सूत्र का अर्थ निपुण अर्थात् सूक्ष्म होता है। इसलिए वह आचार्य आदि के द्वारा अप्रतिबोधित होने पर नहीं जाना जा सकता। अतः वे जब बीजाकीर्ण उपाश्रय में रहते हैं तब जो दोष होते हैं, वे मुझसे सुनो। ३३३४.अगीयत्था खलु साहू, णवरिं दोसे गुणे अजाणंता।
रमणिज्जभिक्ख गामो, ठायंतऽह धण्णसालाए॥ अगीतार्थ मुनि वसति के दोषों और गुणों को न जानते हुए, भिक्षा के लिए यह गांव रमणीय है ऐसा मानकर धान्यशाला में ठहर जाते हैं। २. शिष्य ने पूछा-अगीतार्थ ने भी सूत्र पढ़े हैं, तो फिर वह क्यों नहीं जानता ? उसके समाधान में आचार्य एक श्लोक कहते हैं
सत्स्वपि फलेषु यद्वन्न ददाति फलान्यकम्पितो वृक्षः। तद्वत् सूत्रमपि बुधैरकम्पितं नार्थवद् भवति॥
(वृ. पृ. ९३६)
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