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पहला उद्देशक
साग
२०४८.निग्गंथीणं गणहरपरूवणा खेत्तमग्गणा चेव। २०५४.तुच्छेण विलोभिज्जइ, भरुयच्छाहरण नियडिसड्ढणं। वसही वियार गच्छस्स आणणा वारए चेव॥
[तनिमंतण वहणे, चेइय रूढाण अक्खिवणं॥ २०४९.भत्तद्वणाए य विही, पडिणीए भिक्खनिग्गमे चेव। वे साध्वियां तुच्छ आहार आदि के लोभ से लुब्ध हो
निग्गंथाणं मासो, कम्हा तासिं दुवे मासा॥ जाती हैं। यहां भृगुकच्छ के निकृतिश्राद्ध का उदाहरण है। निग्रंथी के गणधर की प्ररूपणा, क्षेत्र की प्ररूपणा, वसति उसने वस्त्रों का निमंत्रण देकर, प्रवहण के प्रस्थान के समय तथा विचारभूमियां, संयतीगण की आनयना, वारक, मंगलपाठ सुनने के बहाने, चैत्यवंदन के लिए यान-वाहन में भक्तार्थता की व्यवस्था, प्रत्यनीक का निवारण, भिक्षा के आरूढ़ संयतियों का आक्षेपण-अपहरण कर लिया।' लिए निर्गमन, निग्रंथों के एक मास क्यों और निग्रंथियों के दो २०५५.एएहिं कारणेहिं, न कप्पई संजईण पडिलेहा। मास क्यों ? ये सारे द्वार आगे की गाथाओं में व्याख्यात हैं। गंतव्व गणहरेणं, विहिणा जो वण्णिओ पुब्बिं॥ २०५०.पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गेऽवज्ज ओय-तेयस्सी। इन कारणों से साध्वियों को क्षेत्र प्रत्युपेक्षा के लिए जाना
संगहुवग्गहकुसले, सुत्तत्थविऊ गणाहिवई॥ नहीं कल्पता। जो पहले विधि कही गई है उसके अनुसार संयतियों का गणधर कैसा हो? प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा गणधर को ही क्षेत्र-प्रत्युपेक्षा के लिए जाना चाहिए। हो, संविग्न और पापभीरू हो, ओजस्वी और तेजस्वी हो, २०५६.जत्थाहिवई सूरो, समणाणं सो य जाणइ विसेसं। संघ के लिए संग्रह और उपग्रह में कुशल, सूत्रार्थविद्-ऐसा । एतारिसम्मि खेत्ते, समणाणं होइ पडिलेहा॥ व्यक्ति आर्यिकाओं का गणाधिपति हो सकता है।
२०५७.जहियं दुस्सीलजणो, तक्कर-सावयभयं व जहि नत्थि। २०५१.आरोह-परीणाहा चियमंसो इंदिया य पडिपुण्णा। निप्पच्चवाय खेत्ते, अज्जाणं होइ पडिलेहा॥ __ अह ओओ तेओ पुण, होइ अणोतप्पया देहे ॥ जिस क्षेत्र का अधिपति शूरवीर हों, जो श्रमणों के विषय
ओजस्वी वह होता है जिसका शरीर आरोह और परिणाह में विशेष रूप से जानता हो-श्रमणियों के लिए ऐसी क्षेत्र की युक्त हो। आरोह का अर्थ है-शरीर से न अधिक लंबा और न प्रत्युपेक्षा श्रमण करे। तथा जहां दुःशील व्यक्ति न हों, जहां ठिगना और परिणाह का अर्थ है-दोनों भुजाओं की समानता। तस्कर तथा श्वापदभय न हो, जो क्षेत्र निष्प्रत्यपाय है, वैसा वह मांसल हो। वह इन्द्रियों से परिपूर्ण हो। तेजस्वी वह होता क्षेत्र आर्याओं के लिए प्रत्युपेक्षणीय है। है जो शरीर से अलज्जनीय हो।
२०५८.गुत्ता गुत्तदुवारा, कुलपुत्ते सत्तमंत गंभीरे। २०५२.खित्तस्स उ पडिलेहा, कायव्वा होइ आणुपुवीए। भीयपरिस मद्दविए, ओभासण चिंतणा दाणे॥
किं वच्चई गणहरो, जो चरई सो तणं वहइ॥ श्रमणियों के लिए जो वसति हो वह गुप्त अर्थात् जिसके क्षेत्रमार्गणा-साध्वियों के लिए प्रायोग्य क्षेत्र की क्षेत्र चारों ओर बाड़ या दीवार हो, जिसके द्वार पर कपाट लगे प्रत्युपेक्षा के लिए गणधर क्यों जाए? जो बैल चारा चरता है हए हों, जिसका स्वामी (कुलपुत्र) शक्तिशाली, और गंभीर उसे ही चारी वहन करना होता है। इसी प्रकार जो साध्वियों हो, जिससे जनता डरती हो, जो मृदु हो-ऐसे उपाश्रय की का आधिपत्य करता है उसे ही उनकी सारी चिंताओं का । अवभाषणा-अनुज्ञा लेनी चाहिए, तथा जो कुलपुत्र श्रमणियों भार वहन करना होता है।
को अपनी पुत्रियों की भांति चिंता करना स्वीकार कर २०५३.संजइगमणे गुरुगा,आणादी सउणि पेसि पिल्लणया। वसति का दान करता है, तब वैसे वसति की अनुज्ञा लेनी
(उव) लोभे तुच्छा आसियावणाइणो भवे दोसा॥ चाहिए। यदि साध्वियां क्षेत्र प्रत्युपेक्षा के लिए जाती हैं तो आचार्य २०५९.घणकुड्डा सकवाडा, सागारियमाउ-भगिणिपेरंता। को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोषों का निप्पच्चवाय जोग्गा, विच्छिन्नपुरोहडा वसही। भागी होना पड़ता है। जैसे पक्षिणी श्येन के लिए गम्य होती अन्य आचार्य के अनुसार वसति का स्वरूप-श्रमणियों के है तथा मांसपेशी या आम्रपेशी जैसे सबके अभिलषणीय होती। लिए वसति घनकुड्य अर्थात् पक्की ईंटों से युक्त भींतवाली, है वैसे ही ये स्त्रियां भी सबके अभिलषणीय होती हैं। कपाटयुक्त द्वारों वाली तथा जिसके पास में गृहस्थ उपासकों इसीलिए वे विषयार्थियों से प्रेरित होती हैं। वे तुच्छ होती हैं, तथा माता-भगिनी के घर हों जो प्रत्यपायरहित हो, जिसका इसीलिए किसी आहार आदि के प्रलोभन से असियावण- पश्चातभाग विस्तीर्ण हो, ऐसी वसति श्रमणियों के लिए इनका अपहरण कर लिया जाता है। ये दोष होते हैं।
योग्य होती है। १. उदाहरण के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ७०।
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