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स्वामी का निराह कर सकते हैं (यदि वे स्तेनात हो तो) । यदि मुनि भय से मूल स्वामी का नाम छुपाता है तो प्रत्यंगिरादोष-चौर्यकरणलक्षण दोष होता है तथा लोक में उड्डाह होता है।
२०३९. नयणे दिट्ठे सिट्ठे, गिण्हण कढण ववहारमेव ववहरिए ।
लहुओ लहुगा गुरुगा, छम्मासा छेय मूल दुगं ॥ बाहरिका में तृणों को ले जाते देख लेने पर चतुर्लघु, पूछने पर अमुक व्यक्ति से लाये हैं, यह कहने पर चतुर्गुरु, उस व्यक्ति का निग्रह करने पर चतुर्गुरु, राजकुल में उसको ले जाने पर षड्लघुमास, गृहीत गृहस्थ उन ले जाने वालों का प्रतिकूल आकर्षण करता है तो षड्गुरुक, यदि उस पर व्यवहार केस किया जाता है तो छेद, व्यवहृत होने पर यदि वह गृहस्थ पश्चात्कृत है तो मूल, हाथ पैर आदि काटे जाने पर अनवस्थाप्य मृत्युदंड दिए जाने पर अथवा देश से निकाल दिए जाने पर पारांचिक प्रायश्चित प्राप्त होता है ये सारे प्रायश्चित्त संयत को प्राप्त होते हैं।
२०४०. अहवा वि असिम्मी, एसेव उ तेण संकणे लहुगा ।
नीसंकियम्मि गुरुगा, एगमणेगे य गहणादी ॥ अथवा वह मुनि पूछने पर भी नहीं बताता, तो उसी के प्रति चोर होने की आशंका होती है, तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। निःशंकित होने पर चतुर्गुरु का । तदनन्तर एक या अनेक साधुओं का ग्रहण आदि दोष होते हैं। २०४१. नयणे दिने गहिए, कहण ववहारमेव ववहरिए । उहणे य विरंगण, उन्हवणे चैव निव्विस ॥ २०४२. लहु लहुया गुरुगा, छल्लहु छग्गुरुग छेव मूलं च।
अणवटुप्पो दोसु अ, दोसु अ पारंचिओ होइ ॥ तृणों को बिना पूछे प्रतिश्रय के भीतर ले जाने पर लघुमास, राजपुरुषों के देख लेने पर चतुर्लघु, साधु को पूछने पर यदि वह स्वामी का नाम नहीं बताता तो राजपुरुष उसको पकड़ते हैं तब चतुर्लघु उसको चोर मानकर राजकुल के अभिमुख ले जाने पर छह लघुमास, राजपुरुष और साधु के बीच कर्षकर्षण होने पर छह गुरुमास, व्यवहार प्रारंभ हो जाने पर छेद, व्यवहार में यदि साधु को पश्चात्कृत गृहस्थ बना देने पर मूल उद्दहन और हाथ-पैर व्यंगित करने पर अनवस्थाप्य तथा मृत्युदंड और देश से निष्कासन करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त है।
२०४३. दंतपुरे आहरणं, तेनाहड बब्बगादिसु तणेसु । छायण मीराकरणे, अत्थिरफलगं च चंपादी ॥
१. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ६९ ।
२. मीराकरण - कटैः द्वारादेराच्छादनम्-इस तृण से बनी चटाइयों से द्वार
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बृहत्कल्पभाष्यम्
स्तेनाहत तृण के विषय में दंतपुरविषयक उदाहरण वक्तव्य है।' 'बब्बक' (वल्वज) आदि तृणों से ग्लान आदि का छादन होता है, अथवा उपाश्रय का मीराकरण किया जाता है। चंपक पढ़ आदि अस्थिर फलक माने जाते हैं। ये भी स्तेनाहत होते हैं।
२०४४. अंतेणाहडाण नयणे, लहुओ लहुया व होंति सिम्मि
अप्पत्तियम्मि गुरुगा, बोच्छेद पसज्जणा सेसे ॥ अस्तेनाहत तृणों को बिना आज्ञा बाहर ले जाने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा दूसरे किसी ने तृणस्वामी को कहा कि मुनि तुम्हारे तृण बाहर ले जा रहे हैं। तो चतुर्लघु, यदि उस गृहस्वामी में अप्रीति उत्पन्न हो तो चतुर्गुरु। वह तृणस्वामी पुनः उस मुनि को तृण देने का व्यवच्छेद कर दे अथवा शेष द्रव्यों का देना भी बंद कर दे। उस मुनि को ही नहीं, अन्य साधुओं को भी अशन-पानक आदि द्रव्यों का व्यवच्छेद भी कर दे।
२०४५. एसेव गमो नियमा, फलएस वि होइ आणुपुवीए ।
नवरं पुण नाणत्तं चउरो मासा जहन्नपदे ॥ यही प्रायश्चित्त का गम - प्रकार आनुपूर्वी से फलक के विषय में भी जानना चाहिए। विशेष यह है - जघन्यपद में चार मास का प्रायश्चित्त है। (जैसे तृण के ले जाने पर जघन्य है एक मास तो इसमें है चारमास ।)
२०४६. दोन्हं उवरिं वसती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य ।
विश्यपदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए । दो मास से अधिक यदि बाहरिका वसति में रहता है तो प्रागुक्त प्रायश्चित्त तथा वे ही दोष उत्पन्न होते हैं। ग्लानविषयक अपवाद पद भी उसी प्रकार है वहां रहते हुए वसति और भिक्षाचर्या में यतना बरतनी चाहिए।
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेवंसि अबाहिरियंसि कप्पइ निम्गंधीणं हेमंत गेम्हासु दो मासा -
वत्थए ।
(सूत्र ८)
२०४७. एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो । जं एत्थं नाणत्तं तमहं वोच्छं समासेणं ॥ यही क्रम नियमतः निर्ग्रथीयों के लिए भी जानना चाहिए। जो इसमें नानात्व है वह भी संक्षेप में कहूंगा।
आदि का आच्छादन किया जाता है। अथवा ग्लान के लिए संस्तारक भी किया है।
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