________________
पहला उद्देशक =
= २०९ हो तो उसी ग्राम के चार विभाग, तीन विभाग या दो विभाग
से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा कर यतनापूर्वक भिक्षा करे।
सपरिक्खेवंसि सबाहिरियंसि कप्पइ २०२९.ओमा-ऽसिव-दुट्टेसुं, चउभागादि न करिति अच्छंता।
निग्गंथाणं हेमंत-गिम्हासु दो मासे वत्थए। पोरुसिमाईवुड्डी, करिति तवसो असंथरणे॥
अंते एगं मासं, बाहिं एगं मासं। अंतो यदि दुर्भिक्ष हो, अशिव हो या राजा द्वेषी हो गया हो तो वहां रहते हुए भी मुनि ग्राम के चार, तीन आदि विभाग नहीं
वसमाणाणं अंतो भिक्खायरिया, बाहिं करते। यदि आहार की प्राप्ति पर्याप्त न हो तो पौरुषी आदि वसमाणाणं बाहिं भिक्खायरिया॥ तपस्या की वृद्धि करते हैं।
(सूत्र ७) २०३०.मासे मासे वसही, तण-डगलादी य अन्न गिण्हंति।
भिक्खायरिय-वियारा, जहिं ठिया तत्थ नऽन्नासु॥ २०३४.एसेव कमो नियमा, सपरिक्खेवे सबाहिरीयम्मि। प्रत्येक मास के अंत में दूसरी वसति की गवेषणा करते हैं
नवरं पुण नाणत्तं, अंतो मासो बहिं मासो॥ तथा तृण, डगलक आदि भी दूसरे ग्रहण करते हैं। परंतु वे यही (प्रथम सूत्रोक्त) क्रम सपरिक्षेप तथा सबाहिरिक जहां मासकल्प के लिए स्थित थे वहीं भिक्षा करते हैं और ग्राम के विषय में नियमतः वक्तव्य है। यहां विशेष यह हैवहीं विचारभूमी में जाते हैं।
प्राकार के भीतर एक मास तथा बाहर भी एक मास तक रहा २०३१.अट्ठाइ जाव एक्वं, करिति भागं असंथरे गाम। जा सकता है।
__ अट्ठाइ च्चिय वसही, जयंति जा मूलवसही उ॥ २०३५.पुण्णम्मि मासकप्पे, बहिया संकमण तं पि तह चेव। कदाचित् एक ग्लान को आठ ऋतुबद्धमासों तक एक ही
नवरं पुण नाणत्तं, तणेसु तह चेव फलएसु॥ गांव में रहना पड़ता है। ऐसी स्थिति में गांव के आठ भाग अभ्यन्तर में मास कल्प पूर्ण होने पर बाहर संक्रमण कर करने चाहिए और प्रत्येक मास में एक-एक भाग में वसति, एक मास वहां रहे। इसमें विशेष है-तृणविषयक और फलकतृण, डगलक, आहार आदि का उपभोग करना चाहिए। विषयक। बाहरिका में तृण-फलक मिले तो वहीं ले और वहां यदि उस एक भाग से पूर्ति न हो तो ७,६,५ आदि भागों से प्राप्त न हो तो आभ्यन्तरिका से वे तृण-फलक ले जाए जा पूर्ति करनी चाहिए। यदि ऐसा न हो तो गांव के सात, छह, सकते हैं।) पांच आदि भाग करे। दूसरी बात है कि आठ मास के २०३६.अन्नउवस्सयगमणे, अणपुच्छा नत्थि किंचि नेयव्वं । लिए आठ वसतियां ग्रहण करनी चाहिए। उसके अभाव में
जइ नेइ अणापुच्छा, तत्थ उ दोसा इमे होति॥ सात, छह, पांच वसतियां ग्रहण करे। अंततः मूल वसति दूसरे मासकल्प में बाहरिका में, अन्य उपाश्रय में जाते में रहे।
हुए बिना पूछे तृण-फलक न ले जाएं। यदि बिना पूछे ले जाते २०३२.इत्थं पुण संजोगा, एक्किक्कस्स उ अलंभे लंभे य। हैं तो ये दोष प्रास होते हैं। ___णेगा विहाणगुणिया, तुल्ला-तुल्लेसु ठाणेसु॥ २०३७.ताई तण-फलगाई, तेणाहडगाई अप्पणो वा वि।
प्रत्येक वसति के विभाग में भिक्षाचर्या की प्राप्ति, अप्राप्ति निजंतय-गहियाई, सिट्ठाई तहा असिट्ठाई॥ के आधार पर तुल्य (समानसंख्यावाले) अथवा अतुल्य जिसने वे तृण-फलक साधुओं को दिए हैं वे स्तेनाहत्य (विषमसंख्यावाले) स्थान, उनके विधान से गुणित होने पर भी हो सकते हैं और आत्मसंबंधी भी हो सकते हैं। जो अन्य अनेक संयोग-भंग होते हैं।
उपाश्रय में तृण-फलक ले जाए जा रहे हैं, गृहीत हैं, वे शिष्ट २०३३.एक्काइ वि वसहीए, ठिया उ भिक्खयरियाए पयतंति। हैं अथवा अशिष्ट। ___ वसहीसु वि जयणेवं, अवि एक्काए वि चरियाए॥ २०३८. कस्सेते तण-फलगा, सिटे अमुकस्स तस्स गहणादी। इन भंगों के आधार पर प्राप्त एक ही वसति में रहकर
निण्हवइ व सो भीओ, पच्चंगिर लोगमुड्डाहो॥ भिक्षाचर्या के लिए प्रयत्न करते हैं। एक ही भिक्षाचर्या में पूछने पर कि ये तृण-फलक किसके हैं और वह मुनि यह पर्यटन करते हुए तथा वसति में भी यतना करनी चाहिए। कहे कि ये अमुक गृहस्थ के हैं तो संभव है वे उस मूल १. चारणकविधि से गुणित का क्रम यह है-(१) आठ वसतियां आठ भिक्षाचर्या, (२) आठ वसतियां सात भिक्षाचर्या-आदि। इसी प्रकार (१) सात वसतियां आठ भिक्षाचर्या (२) सात वसतियां सात भिक्षाचर्या आदि। इस प्रकार प्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं। सारे भंग ८४८६४ होते हैं।
(वृ. पृ. ५८८)
नि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org