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________________ २०८ =बृहत्कल्पभाष्यम् जाएं। अथवा अपने शिष्यों को वाचना देने के लिए किसी होता है तथा अनेक दोष होते हैं। अपवादरूप में ग्लान आदि दूसरे शिष्य को नियुक्त कर जाते हैं। यह सारा ऋतुबद्धकाल के लिए मास से अधिक भी रहा जा सकता है। उस स्थिति में की अपेक्षा से है। वर्षाऋत में वह स्वयं उपयोग लगाकर वसति और भिक्षा विषयक यतना का पालन करना चाहिए। (वर्षा आयेगी या नहीं) आचार्य के पास आता है। २०२४.परिसाडिमपरिसाडी, संथाराऽऽहार दुविह उवहिम्मि। २०१९.संघाडो मग्गेणं, भत्तं पाणं च नेइ उ गुरूणं। डगलग-सरक्ख-मल्लग-मत्तगमादीण पच्छित्तं॥ अच्चुण्हं थेरा वा, तो अंतरपल्लिए एइ॥ २०२५.ओवासे संथारे, वीयारुच्चार वसहि गामे य। यथालंदिक मुनि के पास आचार्य गए हए हों तो दो मुनि मास-चउम्मासाधिगवसमाणे होइमा सोही॥ गुरु के प्रायोग्य भक्त-पान लेकर पीछे से जाएं। यदि वेला दो प्रकार के संस्तारक-परिशाटी (तृणमय), अपरिशाटी अत्युष्ण हो, आचार्य स्थविर हों तो धारणासंपन्न यथालंदिक (पट्ट आदि), दो प्रकार की उपधि-औधिक और औपग्रहिक, मुनि अन्तरपल्ली में आ जाता है। गुरु भी वहीं जाकर वाचना आहार, डगलक, क्षार-राख, मल्लक, मात्रक आदि उसी देकर, शिष्यों द्वारा लाया हुआ भक्त-पान ग्रहण कर संध्या ग्राम में अथवा आहार आदि उन्हीं कुलों से जहां मास कल्प समय में अपने स्थान पर लौट जाएं। अथवा चातुर्मास किया है, लेने पर प्रायश्चित्त का विधान है। २०२०.अंतर पडिवसभे वा, बिइयंतर बाहि वसभगामस्स। तथा प्रतिश्रय, संस्तारकभूमि-ये पूर्वभुक्त का ही पुनः भोग अन्नवसहीए तीए, अपरीभोगम्मि वाएइ॥ करते हैं, विचार-प्रस्रवण, उच्चार-ये उसी स्थंडिल में यदि गुरु अन्तरपल्ली में भी जाने में असमर्थ हो तो परिष्ठापित करते हैं, उसी वसति का उपभोग करते हैं, उस प्रतिवृषभ ग्राम के अपान्तराल में जाकर यथालंदिक मुनि को ग्राम पर ममत्व करते हैं, मासकल्प में मास से अधिक तथा वाचना दे। वहां जाने में भी अशक्त हो तो दूसरे क्षेत्र के चातुर्मास में चार मास से अधिक रहते हैं-इन सभी प्रवृत्तियों अंतराल में जाकर वाचना दे। वहां भी न जा सके तो के लिए प्रायश्चित्त विहित है। वृषभग्राम अर्थात् मूलक्षेत्र के बाहर एकांत में वाचना दे। वहां २०२६.उक्कोसोवहि-फलए, वासातीए अ होति चउलहुगा। भी न जा सके तो मूलक्षेत्र में ही अन्य वसति में वाचना दे। डगलग सरक्ख मल्लग, पणगं सेसेसु लहुओ उ॥ वहां भी न जा सके तो मूल वसति में ही अपरिभोग्य स्थान में उत्कृष्ट उपधि जैसे वर्षाकल्प आदि का तथा फलक का बैठकर वाचना दे। ग्रहण वहीं करने पर, वर्षा के बीत जाने पर उसका प्रायश्चित्त २०२१.तस्स जई किइकम्म, करिति सो पुण न तेसि पकरेइ। है-चतुर्लघु। डगलक, राख, मल्लक का प्रायश्चित्त है पांच जा पढइ ताव गुरुणो, करेइ न करेइ उ परेणं॥ रात-दिन। शेष (२०२४, २०२५ में उल्लिखित) वस्तुओं का गच्छवासी मुनि यथालंदिक मुनि का कृतिकर्म करते हैं। यथालंदिक मुनि उनका कृतिकर्म नहीं करते। यथालंदिक मुनि २०२७.संवासे इत्थिदोसा, उग्गमदोसा व नेहतो कुज्जा। जब तक गुरु से वाचना लेते हैं तब तक उनका कृतिकर्म चमढण गिलाणदुल्लभ, वारत्तिसिभासियाहरणं॥ करते हैं। उसके पश्चात् गुरु का भी कृतिकर्म नहीं करते। काल-मर्यादा से अधिक एक स्थान में रहने पर स्त्री २०२२.एक्को वा सवियारो, हवंतऽहालंदियाण छ ग्गामा। संबंधी दोष, गृहस्थों के स्नेह के कारण उद्गम आदि दोषों ___ मासो विभज्जमाणो, पणगेण उ निहिओ होइ॥ की संभावना होती है, अन्य गृहस्थों के मन में अधिक रहने यदि गुरु के अधिष्ठित क्षेत्र के बाहर एक सविचार- वाले मुनियों के प्रति अवमानना का भाव उत्पन्न होता है, सविस्तृत ग्राम हो तो यथालंदिक मुनि उस ग्राम के छह ग्लान आदि के प्रायोग्य आहार की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। विभाग करे और प्रत्येक वीथि में पांच-पांच अहोरात्र के यहां ऋषिभाषित ग्रंथ (२७वें अध्ययन) में वर्णित वारत्तक अनुसार एक मास का विभाजन करने पर वह पूरा हो जाता महर्षि का उदाहरण ज्ञातव्य है। है। यदि ऐसा विस्तीर्ण ग्राम न हो तो मूलक्षेत्र के पास में जो २०२८.बहुदोसे वऽतिरित्तं, जइ लब्भे वेज्ज-ओसहाणि बहिं। लघुतर छह ग्राम हों, उनमें प्रत्येक ग्राम में पांच-पांच दिन ' चउभाग तिभागऽद्धे, जयंतऽणिच्छे अलंभे वा।। घूमकर मास की पूर्ति करे। ग्लान के निमित्त काल-मर्यादा से अतिरिक्त भी रहा जा २०२३.मासस्सुवरिं वसती, पायच्छित्तं च होति दोसा य।। सकता है। यदि वह क्षेत्र बहु दोषयुक्त हो तो ग्लान को अन्यत्र बिइयपदं च गिलाणे, वसही भिक्खं च जयणाए॥ ले जाए, जहां वैद्य और औषधियों की प्राप्ति होती हो। यदि एक वसति में एक मास से अधिक रहने पर प्रायश्चित्त प्राप्त ग्लान जाना न चाहे अथवा वैद्य और औषधि की प्राप्ति होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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