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पहला उद्देशक
इस जीवन का क्या प्रयोजन? हमारे जीवित रहने मात्र से क्या ?
२०१०. तं वयणं हिय मधुरं, आसासंकुरसमुब्धवं सयणो । समणवरगंधहत्थी, बेह गिलाणं परिवहंतो ॥ उनका यह हितकर, मधुर वचन आश्वासन के अंकुर को उत्पन्न करने वाला होता है। वे आचार्य ग्लान के स्वजनरूप होते हैं तथा वे श्रमणों के वरगंधहस्ती की भांति होते हैं। वे ग्लान का वहन करते हुए ऐसे वचन कहते हैं (जैसे गंधहस्ती विपदा में फंसे हुए अपने कलभ का परित्याग नहीं करता, वैसे ही ये आचार्य ग्लानत्व की आपदा में फंसे अपने शिष्य का परित्याग नहीं करते।)
२०११. जइ संजमो जइ तवो, दढमित्तित्तं जहुत्तकारितं । जह बंभ जइ सोयं, एएस परं न अन्नेसुं ॥ यदि संयम है, यदि तप है, यदि वृदमैत्रिकत्व है, यथोक्त कारित्व है, यदि ब्रह्मचर्य है, यदि शौच-अनासक्ति है ये सारे निग्रंथ मुनियों में ही पाए जाते हैं, अन्य साधुओं में नहीं। २०१२ अच्चागाडे व सिया,
निक्खित्तो जइ वि होज्ज जयणाए । तह वि उ दोण्ह वि धम्मो,
रिजुभावविचारिणो जेणं ॥ अत्यागाद- अत्यंत भयप्रद स्थिति होने पर, कदाचित् यतनापूर्वक ग्लान को आपत्तिरहित स्थान में रखा जाए, फिर भी वह ग्लान तथा परिचारक दोनों का धर्म है, क्योंकि वे दोनों ऋजुभाव- मोक्षमार्ग में विचरण करने वाले हैं। २०१३. पत्तो जसो य विउलो, मिच्छत्त विराहणा य परिहरिया । साहम्मियवच्छल्लं, उवसंते तं विमग्गति ॥ जो आचार्य और मुनि ऐसी भयंकर स्थिति में भी ग्लान का परित्याग नहीं करते उन्हें विपुल यश प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में मिथ्यात्व तथा विराधना का परिहार होता है। साधर्मिक वात्सल्य का पालन होता है जब वह भय उपशांत हो जाता है तब ग्लान की विमार्गणा करते हैं-शोधन करते हैं। २०१४. पडिबद्धे को दोसो, आगमणेगाणियस्स वासासु ।
सुय - संघयणादीओ, सो चेव गमो निरवसेसो ॥ यथानंदिक मुनियों के गच्छप्रतिबद्धता में कौन सा दोष हे? जब आचार्य क्षेत्र के बाहर जाने में असमर्थ हों तो एकाकी यथालंदिक मुनि आचार्य के पास आते हैं । वर्षाकाल में जब जान लेते हैं कि वर्षा नहीं आएगी तो) वे एकाकी आचार्य के पास आते हैं। श्रुत संहनन आदि के विषय में जिनकल्पिक मुनियों की भांति सारे विकल्प संपूर्णरूप से कहने चाहिए।
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२०१५. सुत्तत्य सावसेसे, पडिबंधो तेसिमो भवे कप्पो आयरिए किइकम्मं, अंतर बहिया व वसहीए ॥ सूत्र और अर्थ का ग्रहण अभी पूरा नहीं हुआ है तो वे यथालंदिक मुनि गच्छ का प्रतिबंध स्वीकार करते हैं। उनका यह कल्प मर्यादा है। वे केवल आचार्य का ही कृतिकर्मवंदनक देते हैं, अन्य मुनियों को वंदना नहीं करते। यदि आचार्य नहीं जा सके तो वसति के मध्य या बाहर यथालंदिक को वाचना दे।
२०१६. नमणं पुष्यन्भासा, अणमणे दुस्सील थप्पगासंका ।
आवड कुकुड त्ति य, वातो लोगे ठिई चेव ॥ (शिष्य पूछता है-आचार्य जहां रहते हैं वहां यथालंदिक रहते हैं तो क्या दोष हैं ?) आचार्य ने कहा
यथालंदिक मुनि आचार्य के अतिरिक्त किसी मुनि को वंदना नहीं करते, यह उनका कल्प है। साथ रहने से पूर्व अभ्यास के कारण साधुओं को नमन भी कर लेते हैं। यथालंदिक मुनि जब गच्छवासियों को प्रतिनमन नहीं करते तो लोग कहते हैं-ये गच्छवासी मुनि दुःशील हैं इसीलिए ये प्रतिनमन नहीं करते। लोगों के मन में यह स्थाप्यक- दृढमूल आशंका हो जाती है कि गच्छवासी मुनि अवश्य ही दुःशील हैं, इसीलिए ये मुनि उनके लिए अवंदनीय हैं। अथवा ये गच्छवासी आत्मार्थिक हैं क्योंकि ये प्रतिनमन न करने वालों को भी नमन करते हैं। अथवा ये 'कौत्कुटिक' हैं- मायाचार करने वाले हैं। ये लोगों में विश्वास जमाने के लिए वंदना करते हैं। ऐसा वाद लोगों में प्रचलित हो जाता है। इसलिए यथालंबिक मुनि गांव के बाहिर भाग में रहते हैं। यह उनका कल्प मर्यादा है।
२०१७. दोन वि दाडं गमणं, धारणकुसलस्स खेत्तवहि देह |
किइकम्म चोलपट्टे, ओवग्गहिया निसिज्जा य ॥ आचार्य गच्छवासी मुनियों को सूत्र और अर्थ- दोनों पौरुषियां देकर, यथालंदिक मुनियों के समीप जाते हैं वहां जाकर अर्थ की बाचना देते हैं। यदि आचार्य न जा सके तो यथालंविक मुनियों के मध्य जो धारणाकुशल मुनि हो, वह क्षेत्र के बाहर जाता है और आचार्य वहां जाकर उसको अर्थ की वाचना देते हैं वह आचार्य को वंदना करता है और चोलपट्ट सहित औपग्रहिक निषद्या पर बैठकर अर्थ सुनता है । २०१८. अत्थं दो व अदाउं, बच्चइ वायावए व अनेणं ।
एवं ता उडुबन्धे वासासु य काउमुवओगं ॥ यदि आचार्य दोनों पौरुषियों को संपन्न कर जाने में असमर्थ हों तो अर्थ पौरुषी को न देकर जाएं। यदि उसे देकर जाने में भी असमर्थ हों तो दोनों पौरुषियों की वाचना न देकर
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