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च॥
२०६०. नासन्ने नातिदूरे, विहवापरिणयवयाण पडिवेसे । मज्झत्थ- ऽवियाराणं, अकुऊहल - भावियाणं श्रमणियों की वसति वहां हो, जिसके न अति निकट और न अति दूर. ऐसा पड़ौसी हो जहां की विधवाएं और परिणतवयवाली तथा मध्यमवयवाली स्त्रियां अविकारयुक्त, अकुतूहल बुद्धिवाली तथा भावित अर्थात् साधु समाचारी से वासित अन्तःकरणवाली हों।
२०६१.भोइय- महतरगादी, बहुसयणो पिल्लओ कुलीणो य । परिणतवओ अभीरू, अणभिग्गहिओ अकुतूहली ॥ २०६२. कुलपुत्त सत्तमंतो, भीयपरिस भद्दओ परिणओ अ। धम्मट्ठी य विणीओ, अज्जासेज्जायरो भणिओ ॥ अन्य आचार्य के अनुसार शय्यातर का स्वरूप - जिस कुलपुत्र - शय्यातर के भोजिक नगरप्रधान, महत्तर - विशेष व्यक्ति आदि बहुस्वजन हों, प्रेरक अर्थात् जो अपने घर में दुराचारियों को आने नहीं देता, जो कुलीन है, जो परिणतवया - प्रौढ़ है, जो अभीरू है, जो मिथ्यात्वरहित है, अकुतूहली है, सत्ववान् है, भीतपर्षत् है, भद्रक और परिपक्व बुद्धिवाला है, धर्मार्थी है तथा विनीत है-ऐसा व्यक्ति श्रमणियों का शय्यातर होने योग्य होता है।
२०६३.अणावायमसंलोगा, अणावाया चेव होइ
चेव
आवायमसंलोगा, आवाया स्थंडिलभूमी के चार प्रकार हैं१. अनापात असंलोक
संलोगा । संलोगा ॥
३. आपात असंलोक
४. आपात संलोक
२. अनापात संलोक २०६४. वीयारे बहि गुरुगा, अंतो वि य तइयवज्जि ते चेव । तए वि जत्थ पुरिसा, उवेंति वेसित्थियाओ अ॥ यदि पुरोहडयुक्त (पिछवाड़ायुक्त) वसति हो और श्रमणियां ग्राम के बाहर विचारभूमी ( स्थंडिल) में जाती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा ग्राम के आभ्यन्तर में भी तीसरे स्थंडिल - आपात असंलोक का वर्जन कर शेष तीन स्थंडिलों में जाती हैं तो भी चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा तीसरे प्रकार के स्थंडिल में जहां पुरुष और वेश्याएं आती हैं, वहां जाने पर भी वही चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है।
२०६५. जत्तो दुस्सीला खलु, वेसित्थि नपुंस हेट्ठ तेरिच्छा ।
सा उ दिसा पडिकुट्ठा, पढमा बिइया चउत्थी य ॥ जिस दिशा में पहली, दूसरी और चौथी स्थंडिल भूमी हो वह दिशा भी प्रतिक्रुष्ट है, वर्जित है क्योंकि उस दिशा में दुःशील पुरुष, वेश्या स्त्रियां, नपुंसक, हे तिर्यञ्च वानर आदि आते हैं।
अधोनापित,
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बृहत्कल्पभाष्यम्
२०६६. चारभड घोड मिंठा, सोलग तरुणा य जे य दुस्सीला । उभामित्थी वेसिय, अपुमेसु उ इंति उ तदट्ठा ॥ चारभट - राजपुरुष, घोट-चट्ट (विद्यार्थी ?), महावत, सोल-अश्वचिन्तक- इत्यादि तरुण युवक दुःशील होते हैं। वे उद्भ्रामक स्त्रियों, वेश्याओं तथा नपुंसकों के साथ प्रतिसेवना करने के लिए पहले और दूसरे प्रकार के स्थंडिल में आते हैं। इसलिए इनका वर्जन किया गया है। (चौथे प्रकार का स्थंडिल इसलिए वर्जित है कि वह खुला होता है, दुःशील आदि दुर्जन लोग वहां श्रमणियों को जाते देखते हैं। श्रमणियों उनको देखती हैं ।)
२०६७. हेट्ठउवासणहेउं,
गहण
उड्डाहो ।
णेगागमणम्मि वानर - मयूर - हंसा, छाला सुणगादि तेरिच्छा ॥ अधस्तादुपासनं-अधोलोचकर्म के लिए अनेक मनुष्यों का वहां आगमन होता है। वहां वे मनुष्य संयतियों को पकड़ लेते हैं। इससे उड्डाह होता है। तथा वहां वानर, मयूर, हंस, बकरे, कुत्ते आदि तिर्यंच पशु भी आते हैं और वे संयतियों को करते हैं। उपद्रुत २०६८. जइ अंतो वाघाओ, बहिया तासि तइया अणुन्नाया। सेसा नाणुन्नाया, अज्जाण वियारभूमीतो ॥
ग्राम के आभ्यन्तर यदि पुरोहड का व्याघात हो- अभाव हो तो श्रमणियों के लिए बाहर तीसरे प्रकार का स्थंडिल अनुज्ञात है। शेष अनापात असंलोक आदि विचारभूमियां आर्याओं के लिए अनुज्ञात नहीं हैं। २०६९.पडिलेहियं च खेत्तं, संजइवग्गस्स आणणा होइ । निक्कारणम्मि मग्गतो, कारणे समगं व पुरतो वा ॥ ऐसे प्रत्युपेक्षित क्षेत्र में संयतिवर्ग को लाया जाता है। यदि मार्ग निष्कारण- निर्भय हो तो साधु आगे चलते हैं और मार्गतः अर्थात् पीछे साध्वियां आती हैं। यदि कारण अर्थात् भय हो तो साध्वियां साधुओं के आस-पास अथवा आगे चलती हैं। २०७०. निप्पच्चवाय संबंधि भाविए गणहरऽप्पबिइ - तइओ । इ भए पुण सत्थेण सद्धि कयकरणसहितो वा ॥ उपद्रव के अभाव में साध्वियों के संबंधी तथा सम्यकभावित मुनियों के साथ गणधर आत्मद्वितीय या आत्मतृतीय रूप में साध्वियों को विवक्षित क्षेत्र में ले जाता है। यदि भय हो तो किसी सार्थ के साथ अथवा कृतकरण अर्थात् धनुर्विद्या में निपुण मुनि को साथ ले साध्वियों को निर्धारित क्षेत्र में पहुंचाता है। २०७१.उभयट्ठाइनिविट्टं, मा पेल्ले वइणि तेण पुर एगे। तं तु न जुज्जइ अविणय विरुद्ध उभयं च जयणाए ।
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