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पहला उद्देशक
कायिकी तथा संज्ञा निवृत्ति के लिए अथवा अन्य किसी प्रयोजन से साधु को बैठा देखकर कोई साध्वी प्रेरित न करे, इसलिए साध्वियां आगे चलती हैं ऐसा कोई आचार्य मानते हैं। यह मानना अयुक्त है। साध्वियों का आगे चलना अविनय का द्योतक है तथा लोकविरुद्ध है इसलिए मुनि कायिकी तथा संज्ञानिवृत्ति यतनापूर्वक करे। (शिष्य ने पूछा-यतना क्या है? आचार्य कहते हैं-जहां एक मुनि कायिकी या संज्ञा निवृत्ति के लिए ठहरता है, वहां अन्य सभी मुनि ठहर जाएं। यह देखकर साध्वियां उनको लांघकर आगे नहीं जायेंगी। वे भी शरीरचिंता से पीछे रहकर ही निवृत्त हो जायेंगी।) २०७२.जहियं च अगारिजणो, चोक्खब्भूतो सुईसमायारो।
कुडमुहदहरएणं, वारगनिक्खेवणा भणिया॥ जिस ग्राम के लोग चोक्षभूत-तथा शौचवादी हों वहां वारक-मात्रक (घट) का ग्रहण करना चाहिए तथा प्रस्रवण आदि उसमें करके, उसके मुख पर वस्त्र बांधकर उसका निक्षेपण करे, यह भगवदाज्ञा है। २०७३.थीपडिबद्धे उवस्सए, उस्सग्गपदेण संवसंतीओ।
वच्चंति काइभूमि, मत्तगहत्था न याऽऽयमणं॥ उत्सर्गपद में साध्वियां स्त्री-प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहें और मात्रक को हाथ में लेकर कायिकीभूमी में जाएं परन्तु आचमन न करें। २०७४.दुक्खं विसुयावेउं, पणगस्स य संभवो अलित्तम्मि।
संदंते तसपाणा, आवजण तक्कणादीया॥ वारक अन्तर्लिप्त रखना चाहिए। अलिप्त वारक को साफ करना दुष्कर होता है तथा उसमें पनक की संभावना बनी रहती है। अलिप्त वारक में पानक डालने से पानक उससे चूने लग जाता है और तब चींटी आदि त्रसप्राणी आ सकते हैं तथा आवज्जण-अनन्तकायिक तथा विकलेन्द्रियों के संघट्टन से प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वारक के चूने वाले पानक में मक्षिकाएं गिरती है। उनको निगलने के लिए छिपकली दौड़ती है। उसको खाने के लिए मार्जारी। इस प्रकार तर्कणा-एक दूसरे को खाने के लिए प्रस्तुत होते हैं। इनका प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २०७५.सागारिए परम्मुह, दगसहमसंफुसंतिओ नितं।
पुलएज्ज मा य तरुणी, ता अच्छ दवं तु जा दिवसो॥ गृहस्थ हों तो उनसे परामख होकर कायिकी करें। तत्पश्चात् नेत्र-मूत्रेन्द्रिय का स्पर्श न करती हुईं पानक से प्रक्षालनानुमापक शब्द करने का आभास कराए। तरुण स्त्रियां इस जिज्ञासा से कि क्या पानी है या नहीं, वे वारक
को देखती हैं। अतः वारक में साफ पानी रखे और संध्या समय में उसे फेंक दे। २०७६.मंडलिठाणस्सऽसती, बला व तरुणीसु अहिवडंतीसु।
पत्तेय कमढभुंजण, मंडलिथेरी उ परिवेसे॥ यदि स्थान गृहस्थों से रहित हो तो मंडली में भोजन करें। यदि मंडली का स्थान न हो और तरुण स्त्रियां बलपूर्वक या प्रेमवश वहां आती हों तो प्रत्येक साध्वी कमढक (पात्रविशेष) में भोजन करे। मंडलिस्थविरा साध्वी सबको भोजन परोसे। २०७७.ओगाहिमाइविगई, समभाग करेइ जत्तिया समणी। ___तासिं पच्चयहेडं, अणहिक्खट्ठा अकलहो अ॥
जितनी साध्वियां हों उन सबको समभाग में पक्वान्न तथा विकृति (घृत आदि) दे। उन सभी साध्वियों के प्रत्यय के लिए न अधिक और न कम-अविषमतया सबको परोसे। इससे कलह का वर्जन होता है। २०७८.निव्वीइय एवइया, व विगइओ लंबणा व एवइया।
अण्णगिलायबिलिया, अज्ज अहं देह अन्नासिं॥ भोजन मंडली में बैठी हुई साध्वियों में से एक साध्वी कहती है-आज मैं निर्विकृतिक हूं। दूसरी कहती है-आज मुझे इतनी ही विकृतियां खानी हैं, शेष का त्याग है। तीसरी कहती है-आज मुझे इतने ही कवल लेने हैं। चौथी कहती है-आज मुझे वासी अन्न ही खाना है। पांचवी कहती है-आज मुझे आचाम्ल करना है, अतः ये विकृतियां अन्य साध्वियों को दे दें। इस प्रकार सबको यथेष्ट भोजन करा दिया जाता है। (सभी अपना-अपना भोजनपात्र साफ करती हैं। प्रवर्तिनी का भोजनपात्र छोटी साध्वी साफ करती है।) २०७९.दट्ठण नियवासं, सोयपयत्तं अलुद्धयत्तं च।
इंदियदमं च तासिं, विणयं च जणो इमं भणइ॥ आर्यिकाओं का सौहार्दपूर्ण एकत्र अवस्थिति, शौचप्रयत्न (वारकग्रहणरूप), अलुब्धत्व, इन्द्रियदमन तथा परस्पर विनय-व्यवहार देखकर लोग कहते हैं२०८०.सच्चं तवो य सीलं, अणहिक्खाओ अ एगमेगस्स।
___ जइ बंभं जइ सोयं, एयासु परं न अन्नासु॥ २०८१.बाहिरमलपरिछुद्धा, सीलसुगंधा तवोगुणविसुद्धा।
धन्नाण कुलुप्पन्ना, एआ अवि होज्ज अम्हं पि॥ इन आर्यिकाओं में जैसी कथनी-करनी की सत्यता है, तप, शील, अनधिकस्वाद अस्वादवृत्ति, परस्परता, ब्रह्मचर्य तथा शौच है, वह परम है, संन्यासिनियों में वैसा नहीं है। यद्यपि ये बाह्यमल से उपेत हैं परंतु शील से सुगंधित तथा
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