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तोगुण से विशुद्ध हैं। इनका जिन कुलों में जन्म हुआ है, वे धन्य हैं। हमारे कुल की बहु-बेटियां भी ऐसी हों। २०८२. एवं तत्य वसंतीणुवसंतो सो व सिं अमारिजणो । गिण्हेति य सम्मत्तं, मिच्छत्तपरम्मुहो जाओ ॥ इस प्रकार उन आर्यिकाओं के रहने से वह ( वसति स्वामी) गृहस्थ भी उपशांत अर्थात् प्रतिबुद्ध होकर, मिथ्यात्व से हो सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेता है। पराङ्मुख २०८३. तरुणीण अभिद्दवणे, संवरितो संगतो निवारेइ । तह विय अठायमाणे, सागारिओ तत्थुवालभइ ॥ प्रत्यनीक व्यक्ति द्वारा तरुणी साध्वी को अभिद्भुत करने पर, संयतवेशधारी मुनि उसे निवारित करता है। यदि वह नहीं मानता है तो शय्यातर उसको उपालंभ देता है, उसका निग्रह करता है।
२०८४. गणिणिअकहणे गुरुगा,
सा वि य न कहेइ जइ गुरूणं पि सिद्धम्मि य ते गंतुं,
अणुसट्टी मित्तमाईहिं ॥
इस प्रकार उपद्रुत होने पर यदि साध्वियां गुरुणी को नहीं कहती हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि गुरुणी आचार्य को नहीं कहती है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। गुरुणी द्वारा निवेदन करने पर आचार्य उस व्यक्ति के पास जाकर साध्वियों के प्रति किए जाने वाले अभद्र व्यवहार के दारुण विपाक की बात उसे समझाते हैं इतने पर भी वह यदि शांत नहीं होता है तो उसके मित्रों या परिजनों को बात बताते हैं इतने पर वह शांत हो जाता है तो ठीक है।
२०८५. तह विय अठायमाणे, वसभा भेसिंति तहवि य अठते ।
अमुगत्थ घरे एज्जह, तत्थ य वसभा वतिणिवेसा ॥ २०८६. सागारिए असंते, किच्चकरे भोइयस्स व कहिंति । अण्णत्थ ठाण णिती, खेत्तस्सऽसति णिवे चैव ॥ वह यदि अपनी कुचेष्टा नहीं रोकता तो वृषभ मुनि उसे डराते हैं। यदि वह न माने तो धनुर्विद् कोई मुनि संयती का वेश धारण कर उसे कहता है-अमुक व्यक्ति के घर पर मिलने आ जाना। वहां अनेक वृषभ मुनि साध्वियों का वेश बनाकर उसे समझाते हैं। वह समझ जाए तो अच्छा है, अन्यथा गृहस्थ को कहते हैं। यदि कोई गृहस्थ न हो तो कृतकर - ग्रामचिंता के लिए नियुक्त भोजिक को कहते हैं। उससे भी यदि वह उपशांत नहीं होता तो संयती को अन्य स्थान क्षेत्र में ले जाते हैं। यदि उपयुक्त क्षेत्र न हो तो राजा को निवेदन करना चाहिए। राजा उस प्रत्यनीक का निग्रह करता है।
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२०८७, दो थेरि तरुणि बेरी,
चउरो अ अणुग्घाया,
बृहत्कल्पभाष्यम्
दोत्रिय तरुणीउ एक्छिया तरुणी
सत्य वि आणाइणो दोसा ॥ यदि दो स्थविराएं अथवा एक तरुणी और एक स्थविरा, अथवा दो तरुणियां अथवा एक स्थविरा अथवा एक तरुणीये यदि भिक्षा के लिए इस प्रकार निर्गमन करती हैं तो चार अनुद्घात (गुरु) मास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं शिष्य प्रश्न करता है क्यों?
२०८८. चउकण्णं होज्ज रहे संका दोसा व थेरियाणं पि
कुट्टिणिसहिता बितिए, तइय- चउत्थीसु धुत्ति त्ति ॥ रहस्य चार कानों तक रहस्य रह सकता है। दोनों स्थविरा साध्वियां भिक्षा के लिए जाती है तो लोगों को शंका हो सकती है कि ये किसी व्यक्ति द्वारा दृति कार्य के लिए नियुक्त हो एक तरुणी और एक स्थविरा साथ हो तो लोग कहते हैं - यह कुट्टिणी के साथ घूम रही है। दो तरुण साध्वियां हों तो लोग कहते हैं ये दूतियां हैं। एक स्थविरा भी दूती मानी जाती है और एक तरुणी साध्वी भी तर्कणीय होती है।
२०८९. पुरतो व मग्गतो या, थेरीओ मज्झ होंति तरुणीओ। अहगमणे निग्गमणे, एस विही होइ काययो ॥ साध्वियों की गमनविधि यह है
आगे और पीछे स्थविरा साध्वियां हों, मध्य में तरुण साध्वियां हों - यह विधि गृहस्थ के घर में प्रवेश करने और निर्गमन के समय की है।
२०९०. तिगमादसंकणिज्जा,
अन्नोन्नरक्खणेसण,
वीसत्थपवेसकिरिया य ॥
तीन आदि साध्वियां अशंकनीय होती हैं तथा श्वान, तरुणों के लिए अनभिलषणीय होती हैं। परस्पर वे अपनी रक्षा भी कर सकती हैं, एषणा की शुद्धि कर सकती हैं तथा विश्वस्त होकर गृहस्थ के घर में प्रवेश और निर्गमन कर सकती हैं।
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अतक्कणिज्जा य साण-तरुणाणं ।
२०९१. थेरी कोट्टगदारे, तरुणी पुण होइ तीए णादूरे।
विश्य किती ठाइ वहिं पञ्चत्थियरक्खणट्टाए ॥ एक स्थविर साध्वी कोठे के द्वार पर, तरुणी साध्वी उससे अधिक दूरी पर न जाए। एक स्थविर साध्वी कोठे के द्वार से बाहर खड़ी रहे । यह इसलिए कि प्रत्यनीक से तरुण साध्वी की रक्षा की जा सके। यदि प्रत्यनीक कुछ अभद्र
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