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________________ २९ सम्पादकीय शव-परिष्ठापन के लिए तीन स्थंडिलभूमियों की प्रत्युपेक्षा करे। एक गांव के निकट, दूसरी उससे कुछ दूर और तीसरी उससे भी दूर। अथवा तीन दिशाओं में दक्षिण, पूर्व, पश्चिम दिशा में, एक-एक स्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करे। तीन स्थंडिल इसलिए कि कभी कोई एक स्थंडिल को अपना खेत बना लेता है। दूसरे स्थंडिल में सेना का पड़ाव हो सकता है। तीसरा स्थंडिल जल से आप्लावित हो सकता है। इसलिए प्रथम दिशा में एक महास्थंडिल की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। अस्थंडिल में शव का परिष्ठापन करने से अनेक दोष हो सकते हैं, होते हैं। शव को परिष्ठापित करने पर दिशाओं के आधार पर हानि-लाभअपरदक्षिण (नैर्ऋति) दिशा में प्रचुरान्न-पानवस्त्र का लाभ। दक्षिण दिशा में भक्तपान की अप्राप्ति। पश्चिम दिशा में उपकरणों की अप्राप्ति। दक्षिणपूर्व (आग्नेयी) दिशा में-गण में 'तू-तू-मैं-मैं' की स्थिति। अपरोत्तर (वायवी) दिशा में-कलह। पूर्व दिशा में गणभेद या चारित्रभेद। उत्तर दिशा में ग्लानत्व। पूर्वोत्तर (ईशान) दिशा में एक और साधु का मरण। शव को आच्छादित करने के लिए सफेद वस्त्र ढाई हाथ चौड़ा और चार हाथ लंबा या कुछ और अधिक लंबा-चौड़ा होना चाहिए। वह सुगंधित तथा साफ होना चाहिए। ऐसे तीन वस्त्र होते हैं। एक वस्त्र शव के नीचे, एक शव को ढंककर डोरे से कसकर बांधा जाता है और तीसरा-उत्कृष्टतर ऊपर डाला जाता है। शव को मलिन वस्त्रों से ढंकने पर अपवाद होता है। जिस वेला में मृत्यु होती है उसी समय शव का निष्काशन कर देना चाहिए। जागरण, बंधन और छेदन-यह सारी विधि संपन्न कर देनी चाहिए। जब तक मृतक का शरीर वायु के द्वारा आक्रान्त न हो, अकड़ नहीं जाता तब तक जीवमुक्त शरीर के हाथ, पैर लंबे किए जा सकते हैं, मुंह और नयनों को संपुट कर दिया जाता है। उस शव के पास जितनिद्र, उपायकुशल, औरसबली, कृतकरण, अप्रमादी और अभीरू मुनि बैठे रहते हैं। हाथों और पैरों के अंगूठों को डोरा बांधे। अक्षत देह में व्यन्तर का प्रवेश हो सकता है, अतः अंगुली के मध्य में चीरा दे। यह छेदन है। इतना करने पर भी यदि कोई प्रान्त देवता उस कलेवर में प्रविष्ट हो जाए और कलेवर उठकर बैठ जाए तो मुनि वामहस्त से प्रश्रवण का कलेवर पर सिंचन करे और कहे ओ गुह्यक! सोचो, समझो। मूढ़ मत बनो, प्रमाद मत करो। संस्तारक से मत उठो। यदि वह कलेवर अन्य देवता द्वारा अधिष्ठित हो और वह विकरालरूप दिखाकर भयभीत कर रहा हो, अट्टहास करता हो तो वही विधि अपनाए और शव का प्रस्रवण से सिंचन करे। शव-वहनकाष्ठ से शव को स्थंडिल भूमी में ले जाते समय एक सूत्रार्थविद् मुनि मात्रक में पानक और कुश लेकर शव के आगे-आगे चले, मुड़कर न देखे। जिस दिशा में गांव हो उस दिशा में शव का सिर करना चाहिए। गांव की ओर शव के पैर करने से अमंगल होता है और लोग गर्दा करते हैं। शव के नीचे बिछा हुआ तृण संस्तारक सम हो, विषम न हो। ऊपर में विषम हो तो आचार्य का, मध्य में विषम हो तो वृषभ का और नीचे विषम हो तो मुनियों का मरण या ग्लानत्व हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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