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= बृहत्कल्पभाष्यम् यदि तृण न मिले तो चूर्ण अथवा नागकेशर से 'ककार' और उसके नीचे 'तकार' करे अर्थात् 'क्त' करे।
शव के पास यथाजात उपकरण-मुखपोतिका, रजोहरण, चोलपट्टक अवश्य रखे। न रखने पर कालगत मुनि जब देवलोक से अपने शव को देखता है तब मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है।
वह शव उत्थित होकर जितने मुनियों का नाम ले, उन सबको लुंचन कराना चाहिए। वे मुनि गणभेद भी कर सकते हैं।
कालगत साधु को परिष्ठापित कर उसी दिन मध्याह्न में या दूसरे दिन सूत्रार्थविद् मुनि उसकी शुभअशुभ गति को जानने के लिए शव का निरीक्षण करे। उसको देखने पर दुर्भिक्ष, सुभिक्ष आदि को भी जाना जाता है।
शव को परिष्ठापित कर स्थान पर आकर कायोत्सर्ग करे।
उपरोक्त सारी विधि भाष्यकाल तक मान्य रही है। शव को गृहस्थों को संभलाने, दाहसंस्कार आदि कब से प्रचलित हुए यह ज्ञात नहीं है।
प्रस्तुत सूत्र में श्लोक ५४९७ से ५५६५ तक कालगत मुनि के परिष्ठापन संबंधी विधि-विधानों का उल्लेख है। आज यह विधि बहुत ही विचित्र और अव्यावहारिक लगती है। आर्याओं के लिए कौन सी विधि थी, यह भी अन्वेषणीय है। प्रतीत होता है कि यही विधि उनके लिए मान्य रही होगी।
इस प्रकार भाष्यकार ने शव-परिष्ठापन विधि को विस्तार से समझाया है। उसके कुछेक बिन्दु ये हैं• शव के परिष्ठापन योग्य स्थंडिल का निरीक्षण। . परिष्ठापन योग्य दिशा और तद्गत उपघात। • कालगत भिक्षु के नीहरण योग्य वस्त्र। • कालगत भिक्षु की व्युत्सर्जन विधि। शोक करने का निषेध। • नक्षत्र के अनुसार कुश के पुतलों का निर्माण। • शव को स्थंडिल भूमी में ले जाते समय विस्मृतिवश आगे ले जाकर पुनः स्थंडिल भूमी में लाने की
विधि। • शव के मस्तक को रखने की दिशा। • शव के नीचे तृण का संस्तारक करने की विधि। • शव के पास यथाजात वस्त्र न रखने से होने वाले दोष। • परिष्ठापन के पश्चात् कायोत्सर्ग करने की विधि। .शव को ले जाने के मार्ग से पुनः न लौटने का निर्देश। • शव में व्यन्तराविष्ट, भूताविष्ट हो जाने पर की जाने वाली विधि। . • आचार्य आदि प्रभावक मुनि या बृहद् कुटुम्ब वाले मुनि के कालगत होने पर की जाने वाली विधि। . रात्री में भी नीहरण की अनुज्ञा। • कालधर्म प्राप्त मुनि के वस्त्रों, पात्रों का व्युत्सर्जन। • दूसरे दिन मुनि के शव के अवलोकन से ज्ञात होने वाले निमित्तों से शुभ-अशुभ गति तथा अन्यान्य
तथ्य। • शव-परिष्ठापन विधिपूर्वक न करने पर प्रायश्चित्त।
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