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________________ दूसरा उद्देशक ३५७ आगमणगिहादिसुवास-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं अहे आगमणगिहंसि वा वियडगिहंसि वा वंसीमूलंसि वा रुक्खमूलंसि वा अब्भावगासियंसि वा वत्थए। (सूत्र ११) या ३४८४.आगमणे वियडगिहे, वंसीमूले य रुक्खमब्भासे। ठायंतिकाण गुरुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा॥ जो श्रमणियां आगमनगृह, विवृतगृह, वंसीमूल, वृक्षमूल तथा अभ्रावकाश इन स्थानों में ठहरती हैं, उनके चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३४८५.आगमगिहादिएसुं, भिक्खुणिमादीण ठायमाणीणं। गुरुगादी जा छेदो, विसेसितं चउगुरू वा सिं॥ आगमनगृह आदि में रहने वाली श्रमणियों के चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त है। उससे प्रारंभ कर वह प्रायश्चित्त छेद पर्यन्त चला जाता है। इन चारों-भिक्षुणी, अभिषेका, गणावच्छेदिनी तथा प्रवर्तिनी के चतुर्गरु का प्रायश्चित्त तप और काल से विशेषित होता है। ३४८६.आगंतुगारत्थिजणो जहिं तु, संठाति जं चाऽऽगमणम्मि तेसिं। तं आगमोगं तु विऊ वदंति, सभा पवा देउलमादियं वा॥ आगंतुक पथिक आदि आकर जहां ठहरते हैं और जो स्थान पथिकों आदि के आगमन के लिए होता है उसको विद्वान् 'आगमौक'-आगमनगृह कहते हैं। वह सभा, प्रपा या देवकुल आदि हो सकते हैं। ३४८७.आगमणगिहे अज्जा, जणेण परिवारिया अणज्जेण। द8 कुलप्पसूता, संजमकामा विरज्जति॥ आगमनगृह में स्थित आर्या को अनार्यजनों से परिवृत देखकर संयम लेने की इच्छा वाली कुलप्रसूत स्त्रियां दीक्षा लेने से विरत हो जाती हैं। वे सोचती हैं३४८८.उवस्सए एरिसए ठियाणं, ... ण सीलभारा सगला भवंति। को दाणि हंसेण किणेज्ज काकं, एवं नियत्तंति कुलप्पसूया। इस प्रकार के उपाश्रय में रहने वाली आर्यिकाओं के ब्रह्मचर्य का भार अखंड नहीं रहता, खंडित हो जाता है। वर्तमान में हमारा गृहवास हंसकल्प अर्थात् हंस के समान निष्कलंक है। इस प्रकार के प्रत्यपायवाले प्रतिश्रय में रहने वाली आर्याओं का संयमजीवन दोषयुक्त होने के कारण काकतुल्य है। कौन भला अब हंस को बेचकर काक को खरीदेगा? इस प्रकार सोचकर वे कुलप्रसूत कुलीन स्त्रियां प्रव्रज्याग्रहण से निवर्तित हो जाती हैं। ३४८९.काइय पडिलेह सज्झाए, भुंजणे वीयारमेव गेलण्णे। साणादी उवगरणे, तरुणाई जे भणिय दोसा॥ कायिकी, प्रत्युपेक्षा, स्वाध्याय, भोजन, विचार और ग्लानत्व-इनमें दोष होते हैं। श्वान आदि उपकरणों का अपहरण कर लेते हैं। तरुण आदि से होने वाले दोष जो प्रथम उद्देशक में कहे गए हैं, उनका यहां भी समवतार होता है। ३४९०.मोयस्स वायस्स य सण्णिरोहे, गेलण्ण णीसट्ठमसण्णिरोहे। पलोट्टणा घाण ससद्द मत्ते, आतोभया तत्थ भवंति कीवे॥ आगमनगृह में स्थित आर्यिकाएं गृहस्थों के संकोचवश मोक-प्रस्रवण तथा अधोवायु का निरोध करती हैं तो ग्लानत्व होता है। यदि निरोध नहीं करती हैं तो निसृष्ट अर्थात् निर्लज्ज होती हैं। यदि कायिकी को मात्रक में व्युत्सृष्ट करती हैं तो मात्रक से परिष्ठापन करते समय या पोंछते समय नाक में दुर्गन्ध उछलती है। मात्रक में प्रस्रवण करते समय वह सशब्द होता है। उससे उड्डाह होता है। आत्मसमुत्थ तथा परसमुत्थ दोष वहां होते हैं। वह संयती स्वयं क्षुब्ध होती है, यह आत्मसमुत्थ दोष है। कायिकीशब्द को सुनकर क्लीव क्षुब्ध होता है, यह परसमुत्थ दोष है। ३४९१.पेहिंति उड्डाह पवंच तेणा, अपेहणे सोहि तिहोवहिस्सा। कीरंतऽकीरंत सुते य दोसा, ण णिति भिक्खस्स निरुद्धमग्गा॥ साध्वियां यदि सागारिक के देखते प्रत्युपेक्षा करती हैं तो गृहस्थ उड्डाह करते हैं, प्रपंच करते हैं स्वयं वैसे ही वस्त्रों को देखना शुरू कर देते हैं। चोर सारवस्त्रों का अपहरण कर लेते हैं। यदि इस भय से प्रत्युपेक्षा नहीं करती हैं तो तीन प्रकार की उपधि के अप्रत्युपेक्षा का प्रायश्चित्त आता है-(जघन्य का पंचक, मध्यम का मासलघु और उत्कृष्ट का चतुर्लघु)। श्रुत अर्थात् स्वाध्याय के करने या न करने पर भी दोष होते हैं। स्वाध्याय करने पर गृहस्थ भी देखा-देखी वैसे ही बोलने लगते हैं और न करने पर श्रुत के नाश की संभावना होती है। गृहस्थों द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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