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३४७६. पूवो उ उल्लखज्जं, छुट्टगुलो फाणियं तु दविओ वा । सक्कुलिगाई सुक्कं तु खज्जगं सूयिअं सव्वं ॥ पूप- मालपुआ आर्द्रखाद्यक है। इसी श्रेणी में लपसी (लपनश्री) आदि भी आते हैं। छुट्टगुल-गीला गुड़ तथा द्रविक - पानी के साथ मिला हुआ पिंडगुड़-ये दोनों फाणित कहलाते हैं। शकुलिका - जलेबी, मोदक आदि सभी शुष्कखाद्य की सूची में आते हैं।
३४७७. जा दहिसरम्मि गालियगुलेण चउजायसुगयसंभारा।
कूरम्मि छुब्भमाणी, बंधति सिहरं सिहरिणी उ॥ दही को छानकर गालित गुड़ से निष्पन्न, इलायचीजेंवत्री - तमालपत्र और नागकेशर इन चार गंध द्रव्यों से वासित, जो भात में डालने पर शिखर को बांधती है (शिखर की भाति उन्नत होती है) वह शिखरिणी कहलाती है।
३४७८. पिंडाईआइने, निग्गंथाणं न कप्पई वासो । चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ पिंड आदि से आकीर्ण उपाश्रय में ठहरना निर्ग्रन्थों (तथा निर्ग्रन्थिनियों) को नहीं कल्पता। वहां वास करने पर चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं।
अहवा
३४७९. चउरो विसेसिया वा दोण्ह वि वग्गाण ठायमाणाणं । गुरुगाई, नायव्वा छेयपज्जंता ॥ वहां रहने पर दोनों वर्गों - श्रमण- श्रमणी - को चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तप और काल से विशेषित प्राप्त होते हैं। अथवा चारों (भिक्षु, वृषभ, उपाध्याय तथा आचार्य) को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त से प्रारंभ कर छेदपर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
अह पुण एवं जाणेज्जा - नो उक्खत्ताई नो विक्खिण्णाई नो विइकिण्णाइं नो विप्पइण्णाइं रासिकडाणि वा पुंजकडाणि वा भित्तिकडाणि वा कुलियाकडाणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा । कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा हेमंतगिम्हासु वत्थए ॥
(सूत्र ९)
१. कुंभी-मुख के आकार वाला कोष्ठक ।
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बृहत्कल्पभाष्यम्
३४८०. अणुभूया पिंडरसा, नवरं मुत्तूणिमेसि पिंडाणं । . काहामो कोउहल्लं, तहेव सेसा वि भणियव्वा ॥ वहां ठहरने पर किसी मुनि की इच्छा हो सकती है कि यहां रखें हुए पिंडों के रसों को छोड़कर मैंने अनेक पिंडों के रसों का अनुभव किया है। मैं अब अपना कुतूहल पूरा करूं - यह सोचकर वह भोज्य पिंडों को खाता है। इसी प्रकार शेष भोज्यों के विषय में भी जानना चाहिए ।
वा
अह पुण एवं जाणेज्जानो रासिकडाणि वा नो पुंजकडाणि वा नो भित्तिकाणि वा नो कुलियाकडाणि वा कोद्वाउत्ताणि वा पल्लाउत्ताणि वा मंचा उत्ताणि वा माला उत्ताणि कुंभउत्ताणि वा करभिउत्ताणि ओलित्ताणि वा विलित्ताणि वा लंछियाणि वा मुद्दियाणि वा पिहियाणि वा, कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वासावासं वत्थए ॥
वा
(सूत्र १०)
३४८१. तेल्ल-गुड-खंड - मच्छंडियाण महु- पाण- सक्कराईणं । दिट्ठ मए सन्निचया, अन्ने देसे कुटुंबीणं ॥ आचार्य उस सागारिक को कहते हैं-आर्य ! हमने अन्य देश में एक कौटुम्बिक के घर में अनेक पिंडों के सन्निचय देखें हैं। हमने तैल, गुड़, खांड, मत्स्यण्डिका, मधु-पान- शर्करा आदि के समूह देखे हैं ।
३४८२. कुंभी करहीए तहा, पल्ले माले तहेव मंचे य । ओलित्त पिहिय मुद्दिय, एरिसए ण कप्पती वासो ॥ जिस उपाश्रय में कुंभी, करभी, पल्य, माल अथवा मंच - इनमें पिंड आदि निक्षिप्त कर, वे सब अवलिप्त, पिहित या मुद्रित हों तो वहां रहना कल्पता है। ३४८३. उडुबद्धम्मि अईते, वासावासे उवट्ठिए संते ।
ठायंतगाण गुरुया, कास अगीतत्थ सुत्तं तु ॥ ऋतुबद्धकाल के बीत जाने पर तथा वर्षावास के उपस्थित हो जाने पर जो ऐसे उपाश्रय में ठहरता है उसके चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त अगीतार्थ के लिए है। प्रस्तुत सूत्र में जो अनुज्ञा है, वह गीतार्थ विषयक है।
२. करभी-घट के संस्थान वाला कोष्ठक ।
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