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दूसरा उद्देशक
३५५ ३४६६.गाउय दुगुणादुगुणं, बत्तीसं जोयणाई चरिमपदं। गांव के मध्य में देवकुल आदि हैं। वे प्रातःकाल
चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ जनसंकुल होते हैं। मुनिगण आए। दिन में बाहर ठहरे। संध्या एक गव्यूति से प्रारंभ कर द्विगुण से द्विगुण की वृद्धि वेला में गांव में आए और प्रदीप वाली वसति में ठहरे। वहां करते हुए बत्तीस योजन पर्यन्त यह चरमपद के प्रायश्चित्त रहने से जो शैक्ष संबंधी दोष होते हैं उन सबका आगाढ़ तक जाता है। जैसे यदि एक गव्यूति तक दहन होता है तो कारण में परिहार करना चाहिए। चतुर्लघु, अर्द्धयोजन तक चतुर्गुरु, योजन तक षड्लघु, दो ३४७३.अन्नाए तुसिणीया, नाए दट्ठण करण सविउलं। योजन का षड्गुरु, चार योजन छेद, आठ योजन मूल, सोलह बाहिं देउल सद्दो, समागयाणं खरंटो य॥ योजन अनवस्थाप्य, बत्तीस योजन पारांचिक।
यदि प्रमादवश आग लग जाए और किसी को ज्ञात न हो ३४६७.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। कि यहां साधु हैं, तो साधु मौनभाव से पलायन कर जाएं।
गीयत्था जयणाए, वसंति तो दीवसालाए॥ यदि ज्ञात हो जाए तो जोर से बोले। अथवा देवकुल से बाहर अध्वनिर्गत आदि मुनि गांव में पहुंचकर तीन बार शुद्ध निकल कर चिल्लाए। जो लोग एकत्रित हों उनके सामने वसति की मार्गणा करते हैं। यदि प्राप्त न हो तो गीतार्थ मुनि खरंटना करे कि किसी ने आग लगा दी। हमारे उपकरण भी यतनापूर्वक प्रदीपशाला में ठहर जाते हैं।
जल गए। ३४६८.ते तत्थ सन्निविट्ठा, गहिया संथारगा विहीपुव्वं ।
उवस्सए असणाइ-पदं जागरमाण वसंती, सपक्खजयणाए गीतत्था॥ वहां रहते हुए साधु विधिपूर्वक अपने संस्तारक करें।
उवस्सगस्स अंतो वगडाए पिंडए वा गीतार्थ मुनि स्वपक्षयतना करते हुए जागते रहे।
लोयए वा खीरे वा दहिं वा नवणीए वा ३४६९.पडिमाझामण ओरुभण लिंपणा दीवगस्स ओरुभणं।
सप्पिं वा तेल्ले वा फाणिए वा पूवे वा ओसक्कण उस्सकण, छुक्कारण वारणोकट्ठी॥ प्रतिमा के जलने की आशंका से प्रतिमा का अन्यत्र
सक्कली वा सिहरिणी वा 'उक्खिण्णाणि संक्रमण कर देना चाहिए। यदि यह न हो सके तो स्तंभ का
वा विक्खिण्णाणि वा' विइकिण्णाणि वा लिंपन किया जाए, प्रदीप को अन्यत्र रखा जाए। यदि प्रदीप विप्पइण्णाणि वा, नो कप्पइ निग्गंथाण वा को हटाया न जा सके तो उसकी वर्तिका का अवसर्पण
निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए॥ उत्सर्पण किया जाए। श्वान, गाय आदि का छुक्कार करे,
__ (सूत्र ८) प्रवेश न करने दे, दंडे आदि से उनका वारण करे या वर्तिका का अपकर्षण करे।
३४७४.देहोवहीण डाहो, तदन्नसंघट्टणाय जोतिम्मि। ३४७०.सकलदीवे वत्तिं, उव्वत्ते पीलए व मा डन्झे।
संगाल चरणडाहो, एसो पिंडस्सुवग्घाओ॥ रूएण व तं नेह, घेत्तूण दिवा विगिंचिंति॥ पूर्व सूत्र में यह प्रतिपादित है कि शैक्ष या अन्य अर्थात् श्रृंखलादीप को हटाया नहीं जा सकता, इसलिए उसकी श्वान, गाय आदि के द्वारा ज्योति का संघट्टन होने पर शरीर वर्तिका का उद्वर्तन करे या निष्पीडन करे जिससे कि प्रदीप या उपधि का दाह हो जाता है। प्रस्तुत सूत्र में पिंड आदि जले नहीं। रूई से प्रदीपवर्ती तैल लेकर दिन में उसका युक्त उपाश्रय में ठहरने पर पिंड के प्रति सराग होने के कारण परिष्ठापन कर दे।
चरण-चारित्र का दाह हो जाता है। इस पिंडसूत्र का पूर्व सूत्र ३४७१.हेट्ठा तणाण सोहण, ओसक्कऽभिसक्क अन्नहिं नयणं। के साथ उपोद्घात-संबंध है।
आगाढे कारणम्मि, ओसक्कऽहिसक्कणं कुज्जा॥ ३४७५.पिंडो जं संपन्नं, पिंडगेज्झं व पिंडाविगई वा। प्रदीप के नीचे जो तृण हों उनका शोधन करे, प्रदीप का
जं तु सभावा लुत्तं, तं जाणसु लोयगं नाम॥ अवसर्पण या अभिसर्पण या अन्यत्र संक्रमण करे। आगाढ़ जो अशन आदि संपन्न है षडरसयुक्त है, वह है पिंड। जो कारण होने पर गीतार्थ स्वयं प्रदीप का अवसर्पण या । पिंडरूप में ग्राह्य होता है वह है पिंड अथवा पिंड विकृति अभिसर्पण स्वयं करते हैं।
अर्थात् सघनगुड़ आदि पिंड है। जो स्वभावतः लुस है-आहार ३४७२.मज्झे व देउलाई, बाहिं व ठियाण होइ अतिगमणं। आदि के गुणों से युक्त हैं, वे लोचक कहलाते हैं, जैसे-दही,
जे तत्थ सेहदोसा, ते इह आगाढे जयणाए॥ दूध, नवनीत, घृत, तैल आदि।
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