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=बृहत्कल्पभाष्यम्
निर्गमन-प्रवेश निरुद्ध हो जाने पर आर्यिकाएं भिक्षा के लिए ३४९६.ओभावणा कुलघरे, ठाणं वेसित्थि-खंडरक्खाणं। आ-जा नहीं सकतीं।
उद्धंसणा पवयणे, चरित्तभासुंडणा सज्जो॥ ३४९२.दुक्खं च भुंजंति सति द्वितेसु,
आगमनगृह में श्रमणियों का धूर्तों से परिवृत होने पर तक्विंति देते य अति दोसा। कुलगृह की निन्दा होती है। वह स्थान वेश्यास्त्रियों, भुंजंति गुत्ता अधिकारिया उ,
खंडरक्षकों-यायावरों का होता है, इसलिए वह स्थान कुलुग्गया किं पुण जा अतोया॥ उद्धषणा, प्रवचन की हीलना तथा चारित्र का शीघ्र नाश करने गृहस्थों के वहां निरंतर बैठे रहने पर साध्वियों को भोजन वाला होता है। करना कष्टप्रद हो जाता है। यदि कोई गृहस्थ आहार की ३४९७.चिंताइ दट्ठमिच्छइ, दीहं णीससति तह जरे डाहे। याचना करे तो उसे देने या न देने से अनेक दोष होते हैं।
भत्तारोयग मुच्छा, उम्मत्तो ण याणती मरणं॥ कुलीन तथा अधिकारसंपन्न स्त्रियां एकान्त में भोजन करती ___३४९८.मासो लहुओ गुरुओ,चउरो लहुगा य होति गुरुगा य। हैं तो फिर ये अतोया-आचमन के लिए पानी न रखने वाली छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च॥ आर्याओं को तो एकान्त में ही भोजन करना चाहिए।
उससे वे दस प्रकार के कामवेग उत्पन्न होते हैं-चिंता, ३४९३.वीयारभोमे बहि दोसजालं,
देखने की इच्छा, दीर्घनिःश्वास, ज्वर, दाह, भोजन की णिसट्ठ-बीभच्छकया य अंतो। अरुचि, मूर्छा, उन्मत्तता, कुछ न जानने की स्थिति कीरंत किच्चे य गिलाण दोसा,
(निश्चेष्टस्थिति) और मरण। कालादिवत्ती य तहोसहस्स॥ प्रथम वेग में लघुमास, दूसरे में गुरुमास, तीसरे में चार यदि साध्वियां विचारभूमी के लिए बाहर जाती हैं तो लघुमास, चौथे में चार गुरुमास, पांचवें में छह लघुमास, छठे अनेक दोष होते हैं और यदि उपाश्रय में ही संज्ञा से निवृत्त । में छह गुरुमास, सातवें में छेद, आठवें में मूल, नौवें में होती हैं तो निर्लज्ज और बीभत्स मानी जाती हैं। यदि ग्लान अनवस्थाप्य और दसवें में पारांचिक। साध्वी के लिए वे कुछ कृत्य-अकल्प्य औषधि आदि देती हैं ये सारे आगमनगृह में रहने के दोष हैं।' तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। यदि सागारिक हैं यह सोचकर ३४९९.एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति विगडगिहे। नहीं करतीं तो औषधि के लिए कालातिपत्ति होती है, काल वसीमूलट्ठाणे, पडिबद्धे जे भणिय दोसा॥ का अतिक्रमण हो जाता है।
ये ही सारे दोष विशेषरूप से विवृतगृह में ठहरने से होते ३४९४.हरंति भाणाइ सुणादिया य,
हैं। वंशीमूलस्थान में ठहरने से वे दोष होते हैं जो द्रव्यतः सयंति भीया व वसंति णिच्चं। और भावतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में ठहरने पर कहे गए हैं। णिच्चाउले तत्थ णिरुद्धचारे,
३५००.अवाउडं जं तु चउद्दिसिं पि, गग्गया होति कओ सि झाओ।
तीसुंदुसुं वा वि तहेक्कतो वा। वहां आगमनगृह में श्वान आदि आकर भाजन आदि ले
अहे भवे तं वियडं गिहं तु, जाते हैं। वहां श्वान आदि भयभीत होकर सदा रहते हैं, सोते
उ8 अमालं च अछन्नगं वा॥ हैं। वे गृह सदा आने जाने वालों से आकीर्ण रहते हैं। आना- विवृतगृह दो प्रकार का है-अधोविवृत और ऊर्ध्वविवृत। जाना निरुद्ध न होने के कारण वहां एकाग्रता नहीं होती तो अधोविवृतगृह वह है जो चारों दिशाओं में, तीन-दो या एक वहां रहने वाली आर्याओं के स्वाध्याय कैसे होगा? दिशा में भींत रहित है, परन्तु ऊपर से आच्छन्न है। ३४९५.तरुणा-वेसित्थि-विवाह-रायमादीसु होति सतिकरणं। ऊर्ध्वविवृतगृह वह है जो पार्श्व में भींत युक्त किन्तु माला
इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ व उवहिं वा॥ रहित और छाधरहित (अच्छन्न) है। वहां आगमनगृह में तरुण, वेश्यास्त्रियां, विवाह आदि ३५०१.अजंतिया तेण-सुणा उति, करने के लिए लोग आते हैं तथा राजा आदि की सवारियां
गोणादि णिस्संकमभिवंति। देखी जाती हैं-इनसे स्मृतियां उभरती हैं। तरुणों के प्रति
तेणादिया तत्थ चिलीय दोसा, इच्छा से व्रतभंग और अनिच्छा से उड्डाह होता है। स्तेन
कडादिकम्मं तु सजीवघातं॥ साध्वियों का या उपधि का अपहरण कर लेते हैं।
विवृतगृह में चोरों और कुत्तों का आगमन अनियंत्रित होता १. इन दसों वेगों की विस्तृत व्याख्या के लिए देखें-गाथा २२५८ से २२६२ पर्यन्त गाथाएं।
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