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दूसरा उद्देशक ३५४१.पुर-पच्छिमवज्जेहिं, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं। ३५४६.उवहि सरीरमलाघव, देहे णिशाइविंघियसरीरो।
भुत्तं विदेहएहि य, ण य सागरियस्स पिंडो उ। संघसग-सासभया, ण विहरइ विहारकामो वि॥ पहले और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर शेष बावीस अलाघव दो प्रकार का है-उपधि अलाघव और शरीर तीर्थंकरों ने तथा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों ने आधाकर्म अलाघव। देह की अलाघवता यह है--प्रतिदिन स्निग्ध भोजन पिंड का लेश अर्थात् सूत्र के आधार पर उपभोग करने की से शरीर का उपबृंहण होता है। इस स्थिति में वह विहार अनुज्ञा दी। किन्तु सागारिक-शय्यातर पिंड की अनुज्ञा करने का इच्छुक व्यक्ति भी विहार कर नहीं सकता, क्योंकि नहीं दी।
मार्ग में जाते समय शरीर की जड़ता के कारण गात्र-संघर्षण ३५४२.सव्वेसि तेसि आणा, तप्परिहारीण गेण्हता ण कता। होता है और श्वास उठने लगता है।
अण्णाउंछ न जुज्जति, जहिं ठितो गेण्हतो तत्थ॥ ३५४७.सागारि-पुत्त-भाउग-णत्तुग सभी तीर्थंकरों ने शय्यातरपिंड का प्रतिषेध किया है,
दाण अतिखद्ध भारभया। उन्होंने उसको लेने की आज्ञा नहीं दी। अज्ञातोञ्छ लेना भी
ण विहरति ओम सावय, उपयुक्त नहीं है। जिस घर में स्थित हैं, वहीं भिक्षा ग्रहण
मियडागनिभाण एज्ज ति॥ करना अज्ञातोञ्छ है।२
शय्यातर ने तथा उसके पुत्र, भाई और पौत्रों ने अत्यधिक ३५४३.बाहुल्ला गच्छस्स उ, पढमालिय-पाणगादिकज्जेसु। दान दे दिया। उस भार को उठाने के भय से वह विहार नहीं
सज्झायकरणआउट्टिता करे उग्गमेगतरे॥ करता। अथवा अवम-दुर्भिक्ष के कारण विहार नहीं करता। गच्छ में साधुओं की बहुलता है। वे प्रातराश लाने, श्रावक सोचता है यह साधु उपकरणों के भार के भय से पानक आदि लाने के प्रयोजन से बार-बार उस घर में जाते हैं विहार नहीं कर रहा है। उसने मायापूर्वक साधु के उपकरण तथा स्वाध्याय और यथोक्तक्रिया करने से आकृष्ट गृहस्थ एक ओर छुपा कर वसति को आग लगा दी। साधु के पूछने उद्गमदोषों में कोई भी दोष कर सकते हैं।
पर कहा-सारे उपकरण जल गए, केवल दो पात्र बचे हैं। तुम ३५४४.दव्वे भावऽविमुत्ती, दव्वे वीरल्ल ण्हारुबंधणता। अब विहार करो। पुनः लौट कर आना।
सउणग्गहणे कड्डण, पइद्ध मुक्को वि आणेइ॥ ३५४८.भिक्खा पयरणगहणं, दोगच्चं अण्णआगमे ण देमो। अविमुक्ति के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। द्रव्य
पयरण णत्थि ण कप्पति, असाहु तुच्छे य पण्णवणा॥ अविमुक्ति में वीरल्ल-बाज पक्षी का दृष्टांत है। बाज पक्षी के एक घर में अनेक साधु ठहरे। वे प्रतिदिन प्रतरणभिक्षापैरों की सन्धि को एक डोरी से बांधकर जहां तीतर आदि सबसे पहले दी जाने वाली भिक्षा लेने लगे। कालान्तर में पक्षी हों, वहां उसे छोड़ते हैं। जब वह किसी पक्षी को पकड़ सेठ दरिद्र हो गया। एक बार अन्य साधुगण आए और उसी लेता है तब उस डोरी को खींच लेते है। वह बाज उस पक्षी सेठ से वसति की याचना की। उसने कहा नहीं देंगे। 'क्यों' के साथ वहां आ जाता है। व्यक्ति हाथ में मांस का खंड के उत्तर में कहा-प्रतरण-प्रथमदेय भिक्षा नहीं है। साधु रखता है। बाज उस मांस-खंड में आसक्त हो जाता है। फिर बोले-प्रतरण लेना नहीं कल्पता। उसने कहा-यह तो मेरे उसे बंधनमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु वह पक्षियों को लिए असाधु है, अमंगल है। क्योंकि मेरे घर से साधु तुच्छ लाता है और वहीं रहता है।
भाजन (खाली भाजन) लेकर जाएं। फिर साधुओं ने उसे ३५४५.भावे उक्कोस-पणीयगेहितो तं कुलं ण छड्डेति। प्रज्ञापित किया कि साधुओं को वसति देना परम मंगल है।
पहाणादी कज्जेसु व, गतो वि दूरं पुणो एति॥ उसने वसति दी। भाव अविमुक्ति यह है-उत्कृष्ट द्रव्य और प्रणीत भोजन ३५४९.थल देउलिया ठाणं, सतिकालं दट्ट दट्ट तहिं गमणं। की गृद्धि से वह शय्यातरकुल का परिहार नहीं करता। निग्गए वसहीभंजण, अण्णे उभामगाऽऽउट्टा। अथवा स्नान-रथयात्रा आदि पर्यों में तथा कार्यों अर्थात् कुल- किसी गांव के मध्य में एक स्थल था। ग्रामवासियों ने गण-संघ आदि के प्रयोजनों से दूर चले जाने पर भी पुनः वहां एक देवकुलिका का निर्माण कर दिया। वहां साधु ठहरे। उसी कुल के लिए लौट आता है।
वे मुनि सत्काल-भिक्षा का देश-काल देख-देखकर उन घरों १. बावीस तीर्थंकरों के तथा महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के जिस साधु के लिए आधाकर्म किया है, उसी के लिए वह नहीं कल्पता, शेष साधु उसे ग्रहण
कर सकते हैं। इस प्रकार उन्होंने यत्किंचित् रूप में आधाकर्म की अनुज्ञा दी है। २. अज्ञातस्य-अविदितस्य यद् उठछं-भैक्षग्रहणं तदज्ञातोञ्छमिति कृत्वा।
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