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बृहत्कल्पभाष्यम्
न करा
३५३१.असइ वसहीय वीसुं, वसमाणाणं तरा तु भयितव्वा। २. जब वसति से निर्गत हो गए तब....।
तत्थऽण्णत्थ व वासे, छत्तच्छायं तु वज्जेति॥ ३. सागारिक के अवग्रह से निर्गत होने पर....। सभी साधुओं के सामने योग्य वसति के अभाव में अनेक ४.सूर्योदय से पहला प्रहर व्यतीत होने पर....। साधु दूसरी वसति में रहते हैं। ऐसी स्थिति में शय्यातर ५. दूसरा प्रहर व्यतीत होने पर....। विभक्त हो जाते हैं। मूल वसति में या अन्य वसति में रहते हैं ६. तीसरा प्रहर व्यतीत होने पर....। तो वे आचार्य के 'छत्रछाया'-मौलिक शय्यातरगृह का वर्जन ७. पूरा दिन अर्थात् चौथा प्रहर व्यतीत होने पर....। करते हैं।
आचार्य कहते हैं ये सारे अनादेश हैं। सिद्धांत कहता ३५३२.दुविह चउब्विह छविह, अट्ठविहो होति बारसविहोय। है-'वुत्थे वज्जेज्जऽहोरत्तं'-जिस वसति में रहे हैं, उसका
सेज्जातरस्स पिंडो, तबिवरीओ अपिंडो उ॥ अहोरात्र तक अशन आदि का वर्जन करे। शय्यातरपिंड दो, चार, छह या आठ प्रकार का होता है। ३५३७.अग्गहणं जेण णिसिं, अणंतरेगंतरं दुहिं च ततो। उसके विपरीत अपिंड होता है, शय्यातरपिंड नहीं होता।
गहणं तु पोरिसीहिं, चोदग! एते अणादेसा॥ ३५३३.आहारोवहि दुविहो, बिदु अण्णे पाण ओहवग्गहिए। रात्री में भक्तपान का अग्रहण होता है अतः उसके
असणादिचउर आहे, उवग्गहे छविहो एस॥ अनन्तर एक, दो, तीन, चार पौरुषी में शय्यातरपिंड ग्रहण ३५३४.अण्णे पाणे वत्थे, पादें सूयादिया य चउरट्ठ।। करने के जो कथन हैं हे शिष्य! वे सारे अनादेश हैं। आदेश
असणादी वत्थादी, सूचादि चउक्कका तिन्नि॥ यह है कि रात्री के चार प्रहर शय्यातर है, उसके पश्चात् दो प्रकार का शय्यातरपिंड होता है-आहार और उपधि। अशय्यातर। अथवा द्विगुणितदो अर्थात् वह चार प्रकार का होता है-अन्न, ३५३८.सूरत्थमणम्मि उ णिग्गयाण दोण्ह रयणीण अट्ठ भवे। पान, औधिक उपकरण तथा औपग्रहिक उपकरण। छह
देवसिय मज्झ चउ दिणणिग्गति वितियम्मि सा वेला। प्रकार का शय्यातरपिंड-अशन, पान, खादिम, स्वादिम, सूर्य के अस्तमनवेला में निर्गत, उस रात्री के चार प्रहर, औधिक उपकरण और औपग्रहिक उपकरण। आठ प्रकार का अपररात्री के चार प्रहर और दिन के चार प्रहर-इस प्रकार शय्यातरपिंड अन्न, पान, वस्त्र, पात्र, सूची, पिप्पलक, उत्कृष्ट अशय्यातर बारह प्रहर का होता है। यह एक मत है। नखछेदनक तथा कर्णशोधन। बारह प्रकार का शय्यातर- दूसरा मत है-सूर्योदय होने पर दिन में यदि निर्गत हैं तो पिंड-अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कंबल, दूसरे दिन उसी वेला तक अशय्यातर होता है। पादपोंछन, सूची, पिप्पलक, नखछेदनक तथा कर्णशोधनक। ३५३९.लिंगत्थस्स उ वज्जो, तं परिहरतो व भुंजतो वा वि। ३५३५. तण-डगल-छार-मल्लग-सेज्जा-संथार-पीढ-लेवादी।
जुत्तस्स अजुत्तस्स व, रसावणो तत्थ दिद्वंतो॥ सेज्जातरपिंडो सो, ण होति सेहो य सोवहिओ॥ लिंगस्थ मुनि उस शय्यातर पिंड का परिहार करता तृण, डगल, क्षार, मल्लक, शय्या, संस्तारक, पीढ़, है या खाता है, वह साधुगुणों से युक्त हो या अयुक्त उसके लेप आदि शय्यातरपिंड नहीं होते। वस्त्र, पात्र सहित शैक्ष । लिए भी शय्यातर वर्जनीय होता है। यहां रसापण का (वह चाहे शय्यातर का पुत्र आदि क्यों न हो) भी दृष्टांत है। शय्यातरपिंड नहीं होता।
३५४०.तित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अण्णाय उग्गमो ण सुज्झे। ३५३६.आपुच्छिय उग्गाहिय, वसहीतो णिग्गतोग्गहे एगे।
अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा य वोच्छेदो॥ पढमादि जाव दिवस, वुत्थे वज्जेज्ज होरत्तं॥ तीर्थंकरों द्वारा शय्यातरपिंड निषिद्ध है। जो उसे लेते हैं वे गाथा १५३९ तथा १५४० में उक्त वचनों से आचार्य द्वारा उनकी आज्ञा का पालन नहीं करते। अज्ञातोञ्छ तथा उद्गम पूछने पर वह व्यक्ति शय्यातर नहीं होता।
की भी शुद्धि नहीं होती। अविमुक्ति, अलाघवता होती है। फिर १. विहार करने के इच्छुक होकर पात्र आदि उपकरणों शय्या की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। शय्या का विच्छेद या को कंधों पर रख लिया तब.....।
भक्तपान का प्रतिषेध।
१. छत्रः-आचार्यस्तस्य च्छायां वर्जयन्ति, मौलशय्यातरगृहमित्यर्थः।
(वृ. पृ. ९८३) २. जैसे महाराष्ट्र देश में रसापण-मद्यविक्रयकेन्द्र पर लोगों के अवबोध
के लिए एक ध्वज होता है, फिर चाहे वहां मद्य हो या न हो। ध्वज को
देखकर सभी भिक्षाचर आदि उसका परिहार करते हैं। इसी प्रकार गच्छ में भी साधु गुणों से युक्त हो या न हो, परंतु जिसके पास रजोहरण ध्वज होता है उसके लिए भी शय्यातर वर्जनीय है।
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