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________________ दूसरा उद्देशक किस मुनि से संबंधित शय्यातर परिहर्तव्य होता है ? सागारिकापिंड के दोष क्या हैं? किस कारण में वह पिंड कल्पता है ? किस यतना से उस पिंड को एक शय्यातर अथवा अनेक शय्यातरों से ग्रहण करने योग्य होता है? ३५२१. सागारियस्स णामा, एगट्ठा णाणवंजणा पंच । सागारिय सेज्जायर, दाता य तरे धरे चेव ॥ सागारिक के पांच नाम एकार्थक हैं, नाना व्यंजन वाले हैं। वे ये हैं-सागारिक, शय्याकर, शय्यादाता, शय्यातर और शय्याधर । ३५२२. अगमकरणादगारं, तस्सहजोगेण होइ सागारी । सेज्जाकरणे सेज्जाकरो उ दाता तु तद्दाणा ॥ ३५२३. गोवाइऊण वसहिं, तत्थ वि ते यावि रक्खिडं तरह। तद्दाणेण भवोघं च तरति सेज्जातरो तम्हा ॥ ३५२४. जम्हा धारह सिज्जं पडमाणिं छज्ज लेपमाईहिं जं वा तीए धरेती, नरगा आयं धरो तम्हा ॥ अगम अर्थात् वृक्ष । उनसे बने हुए गृह अगार हैं । अगार के साथ जिसका योग है वह है सागारिक। शय्या अर्थात् प्रतिश्रय । उसको करने वाला शय्याकर। शय्या का दान करने वाला शय्यादाता। जो शय्या वसति का संरक्षण करने में समर्थ होता है वह है शय्यातर अथवा जो शय्या में रहने वालों का संरक्षण करता है वह है शय्यातर अथवा जो शय्या के दान से संसार समुद्र को तर जाता है वह है शय्यातर । जो गिरती हुई शय्या को छादन- लेपन के द्वारा धारण करता है। वह है शय्याधर अथवा जो साधुओं को शय्या का दान कर अपनी आत्मा को नरक में गिरने से धारण करता है वह है शय्याधर । ३५२५. सेज्जायरो पभू वा, पभुसंविट्ठो व होड़ कायव्वो । एगमणेने व पभू, पशुसंविद्वे वि एमेव ॥ शय्यातर उपाश्रय का प्रभु स्वामी होता है अथवा वह भी शय्यातर होता है जो गृहस्वामी द्वारा निर्दिष्ट है। गृहस्वामी एक भी हो सकता है और अनेक भी इसी प्रकार गृहस्वामी द्वारा निर्दिष्ट व्यक्ति एक भी हो सकता है और अनेक भी। ३५२६. सागारिय संविद्वे, एगमणेगे चउक्कभयणा त। एगमणेगा बज्जा णेगेसु उ वज्जए एक्कं ॥ सागारिक द्वारा संदिष्ट एक या अनेक के आधार पर चतुर्भगी होती है १. एक प्रभु एक संदिष्ट । २. एक प्रभु अनेक संदिष्ट । ३. अनेक प्रभु एक संदिष्ट । ४. अनेक प्रभु अनेक संविष्ट । । Jain Education International ३६१ इसमें एक अथवा अनेक शय्यातर वर्ज्य हैं। अनेक शय्यातर होने पर एक को स्थापित कर शेष वर्ज्य है। ३५२७. अणुणविय उग्गहंगण,पायोग्गाणुण्ण अतिगते ठविते । सज्झाय भिक्ख भुत्ते, णिक्खित्ताऽऽवासए एक्को । ३५२८. पढमे बितिए ततिए, चउत्थ जामे व होज्ज वाघातो । निव्वाघाए भयणा, सो वा इतरो व उभयं वा ॥ शय्यातर कब होता है, इस विषय में अनेक आदेश मत हैं- १. जो प्रतिश्रय की अनुज्ञा देता है। २. जब सागारिक के अवराह में प्रवेश कर जाते हैं। ३. जब उसके गृहांगण में प्रवेश कर लेने पर । ४. जब तृण डगलक आदि अनुज्ञापित हो जाते हैं। ५. वसति में प्रवेश करने के पश्चात् । ६. दंडक आदि उपकरण स्थापित कर देने अथवा दानश्राद्ध आदि कुलों की स्थापना कर देने पर । ७. जब वहां स्वाध्याय प्रारंभ कर देते हैं। ८. वहां से भिक्षा के लिए निर्गत होने पर । ९. आहार प्रारंभ कर देने पर । १०. भाजनों को निक्षिप्त करने से ११. जब दैवसिक आवश्यक कर लिया हो । १२. रात्री के प्रथम याम व्यतीत हो जाने पर । १३. दूसरा याम बीत जाने पर । १४. तीसरा याम बीत जाने पर १५. चौथा याम बीत जाने पर। आचार्य कहते हैं ये सारे अनादेश हैं। क्योंकि दिन में इन सबमें व्याघात हो सकता है। निर्व्याघात होने पर रात्री में वहीं रहने पर वह गृहस्वामी शय्यातर होता है अथवा अन्य अथवा दोनों। ३५२९. जगति सुविहिया, करेंति आवासगं च अण्णत्थ । सेज्जातरो ण होती, सुत्ते व कए व सो होती ॥ यदि सुविहित मुनि रात्री के चारों प्रहरों में जागते हैं तथा प्राभातिक आवश्यक अन्यत्र जाकर करते हैं तो मूल उपाश्रयस्वामी शय्यातर नहीं होता। सोने पर तथा आवश्यक वहां करने पर वह शय्यातर होता है। ३५३०. अन्नत्थ व सेऊणं, आवासग चरममण्णहिं तु करे । दोणि वि तरा भवंती, सत्यादिसु इधरधा भयणा ॥ अन्य स्थान में सोकर, चरम अर्थात् प्राभातिक आवश्यक अन्यत्र करते हैं तो दोनों (जहां सोये तथा जहां आवश्यक किया) शय्यातर होते हैं। यह प्रायः सार्थ आदि में होता है। अन्यथा गांव आदि में रहने वालों के लिए इसकी भजना है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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