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________________ ३६४ में भिक्षा के लिए जाते हैं। मिक्षा ग्रहण करते हैं, पीछे कुछ नहीं बचता। एक बार ग्रामवासियों ने मुनियों के वसति के बाहर निर्गत होने पर, वसति को नष्ट कर डाला। इसी प्रकार किसी अन्य ग्राम में मुनि देवकुलिका में ठहरे वे उद्भ्रामक भिक्षाचर्या करते थे। तब गृहस्थ उनसे प्रभावित होकर एकत्रित होकर अपने घरों में भिक्षा के लिए निमंत्रित करने लगे। उन्होंने कहा-'हम बाल तथा वृद्ध मुनियों के लिए भिक्षा लेंगे।' इस प्रकार भिक्षा भी सुलभ हो गई और वसति का ध्वंस भी नहीं हुआ । ३५५०. दुविहे गेलन्नम्मी, निमंतणे दव्वदुल्लभे असिवे । ओमोदरिय पओसे, भए व गहणं अणुण्णायं ॥ शय्यातर का पिंड सात कारणों से अनुज्ञात है१. आगाढ़ या अनागाढ़ ग्लानत्व में २. निमंत्रण ३. दुर्लभद्रव्य ४. अशिव ५. अवमौदर्य ६. प्रद्वेष अथवा राजद्विष्ट ७ भय । ३५५१. तिपरिरयमणागाढे, आगाढे खिप्पमेव गहणं तु । कज्जम्मि छंदिया पेच्छिमोति ण य बेंति उ अकप्पं ॥ अनागाद ग्लानत्व में तीन बार परिभ्रमण करे, फिर भी यदि द्रव्य न मिले तो शय्यातर पिंड ले । आगाढ़ ग्लानत्व में तत्काल ले सकता है। यदि शय्यातर भिक्षा लेने के लिए निमंत्रित करे तो साधु कहे- प्रयोजन होने पर लेंगे। ऐसा न कहे- तुम्हारा भक्तपान नहीं कल्पता । ३५५२. जं वा असहीणं तं भणंति तं देह तेण णे कज्जं । णिब्बंधे चेव सई, घेत्तूण पसंग वारेंति ॥ जो द्रव्य शय्यातर के घर में अस्वाधीन है अर्थात् नहीं है, मुनि उसकी याचना करते हुए कहते हैं, हमारे उस द्रव्य से प्रयोजन है शय्यातर यदि अतीव आग्रहपूर्वक कोई द्रव्य दे तो उसको एक बार ग्रहण कर ले परन्तु पुनः द्रव्य दे तो उसके प्रसंग का निवारण करे। ३५५३. दुल्लभदव्वं व सिया, संभारघयादि घेप्पती तं तु । ओमऽसिवे पणगाविस, जतिऊणमसंबरे गहणं ॥ दुर्लभद्रव्य अथवा संभारघृत (अनेक द्रव्यों से संयुक्त घृत) आदि शय्यातर के घर में हो, वह ग्लान आदि के निमित्त लिया जाता है। इसी प्रकार अवमौदर्य तथा अशिव में असंस्तरण की स्थिति में पंचक हानि के आधार पर शय्यातर के घर से पिंड लिया जा सकता है। ३५५४. उवसमण पट्टे, सत्यो वा जा ण लब्भते ताव। अच्छंता पच्छण्णं, गेण्हंति भए वि एमेव ॥ राजा के प्रद्विष्ट हो जाने पर उसके उपशमन के लिए रहते हुए अथवा राजा साधुओं को देशनिष्काशन की आज्ञा दे Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् देता है तो जब तक किसी सार्थ का आगमन नहीं होता तब तक मुनि प्रच्छन्न रहकर शय्यातर का पिंड लेते हैं। इसी प्रकार भय की स्थिति में भी वैसा किया जा सकता है। ३५५५. तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गिऊण कहयोगी। दव्वस्स य दुल्लभया, सागारियसेवणा दव्वे ॥ अपने क्षेत्र में चारों दिशाओं में तीन बार शुद्ध भिक्षा की मार्गणा करे। यदि प्राप्त न हो तो कृतयोगी - गीतार्थ मुनि द्रव्य की दुर्लभता को जानकर शय्यातरपिंड की प्रतिसेवना करते हैं। ३५५६. गेसु पिया पुत्ता, सवत्ति वणिए घडा वए चेव । एएसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वी ॥ (एक शय्यातर विषयक चर्चा के अनन्तर अनेक शय्यातर विषयक चर्चा ) अनेक शय्यातरों के ये भेद हैं- पिता-पुत्र, पत्नियां, व्यापारी, गोष्ठीपुरुष तथा गोकुल में इनका नानात्व विभाग यथानुपूर्वी प्ररूपित करूंगा। ३५५७. पित्त पुत्त धेरए या, अप्पभु दोसा य तम्मि उपउत्थे । जेद्वातिअणुण्णवणा, पाहुणए पाहुणए जं जं विधिग्गहणं ॥ - यदि पिता और पुत्र दोनों स्वामी हों तो दोनों की अनुज्ञा लेनी चाहिए। यदि पिता स्थविर हो, पुत्र बाल हो तो दोनों अप्रभु हैं, इनकी अनुज्ञा आवश्यक नहीं होती । अनुज्ञा लेने पर वे ही दोष होते हैं। यदि मूल स्वामी देशान्तर गया हुआ हो तो उसके ज्येष्ठ आदि पुत्र की अनुज्ञा लेनी चाहिए अथवा जो उनका प्राघूर्णक है उसकी अनुज्ञा लेनी होती है। इन सबमें विधिपूर्वक ग्रहण ही अनुज्ञात है। ३५५८. दुप्पभिइ पिया- पुत्ता, जहिं होंति पभू ततो भणइ सव्वे । णातिक्कमंति जं वा, अपभुं व पभुं व तं पुव्वं ॥ जहां दो आदि अनियत पिता पुत्र प्रभु होते हैं तो सबकी अनुज्ञा प्राप्त की जाती है अथवा जिस प्रभु या अप्रभु का अतिक्रमण नहीं होता, उसकी अनुज्ञा पहले ली जाती है। ३५५९. अप्पभु लहुओ दिव णिसि, पभुणिच्छूढे विणास गरहा य । असहीणम्मि पभुम्मि उ, सहीणजेद्वादऽणुण्णवणा ॥ अप्रभु की अनुज्ञा लेने पर मासलघु प्रभु द्वारा दिन में । निष्काशन करने पर चतुर्लघु और रात्री में निष्काशन करने पर चतुर्गुरु रात्री में निष्काशन होने पर विनाश होता है तो लोगों में निन्दा होती है। प्रभु यदि अस्वाधीन हो वहां नहीं हो तो जो ज्येष्ठपुत्र आदि स्वाधीन हों उनसे अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए। यदि सभी प्रभु हों तो एक साथ सबकी अनुज्ञा लेनी चाहिए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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