________________
दूसरा उद्देशक =
३६५ ३५६०.पाहुणयं च पउत्थे, भणंति मेत्तं व णातगं वा से। यदि वह पुत्रवती न हो और छोटी भार्या पुत्रवती हो अथवा
तं पि य आगतमेत्तं, भणंति अमुएण णे दिण्णं॥ दोनों में जो ज्येष्ठपुत्रा हो, जो पुत्र प्रभु हो अथवा जो भार्या प्रभु के देशान्तर चले जाने पर उसके प्राघूर्णक या मित्र स्वयं प्रभु हो, प्रमाणभूत हो उसकी अनुज्ञा ली जा सकती है। या ज्ञातक की अनुज्ञा ली जाती है। प्रभु के देशान्तर से ३५६४.तम्मि असाहीणे जेहपुत्तमाया व जा व से इट्ठा। लौटने पर उसे कहते हैं-अमुक ने हमें यह वसति दी है। ____ अह पुत्तमाय सव्वा, जीसे जेट्ठो पभू वा वि॥ ३५६१.अप्पभुणा उ विदिण्णे, भणंति अच्छामु जा पभू एती। यदि गृहस्वामिनी वहां न हो तो ज्येष्ठ भार्या अथवा पुत्र
पत्ते उ तस्स कहणं, सो उ पमाणं ण ते इतरे॥ ___माता, अथवा गृहपति की जो वल्लभ पत्नी हो उससे वसति यदि वहां अप्रभु हो तो उसे कहे-हम यहां तब तक रह की अनुज्ञा ले। यदि सभी पत्नियां पुत्रमाताएं हो तो जिसका रहे हैं जब तक वसतिस्वामी न आ जाएं। जब अप्रभु उस पुत्र ज्येष्ठ हो, उसकी माता से अनुज्ञा ली जाए। यदि ज्येष्ठ वसति की अनुज्ञा देता है तो वहां रह जाएं और प्रभु के आने पुत्र प्रभु न हो तो जिसका पुत्र कनिष्ठ होने पर भी प्रभु हो तो पर उसे सारी बात बता दें। प्रभु उस वसति की अनुज्ञा दे या उस माता की अनुज्ञा लेनी चाहिए। वहां से निष्काशन कर दे, वही अर्थात् प्रभु ही प्रमाणभूत ३५६५.असहीणे पभुपिंडं, वज्जंती सेसए तु भहादी। होता है, इतर अर्थात् पहले वाला अप्रभु नहीं।
साहीणे जहिं भुंजइ, सेसे वि उ भद्द-पंतेहिं॥ ३५६२.इय एसाऽणुण्णवणाजतणा पिंडो पभुस्स ऊ वज्जो। गृहस्वामी वहां न हो और उसकी पत्नी प्रभु हो तो भी
__ सेसाणं तु अपिंडो, सो वि य वज्जो दुविहदोसा॥ उसका पिंड वर्ण्य है। शेष पत्नियों के घर का पिंड
इस प्रकार प्रतिश्रय की अनुज्ञापना में यह यतना कही गई शय्यातरपिंड नहीं होता परन्तु भद्रक-प्रान्तकृत दोषों के है। प्रभु अर्थात् शय्यातर के पिंड का वर्जन करना चाहिए। कारण वर्जनीय है। शय्यातर जिस पत्नी के घर में खाता है, शेष जो अप्रभु हैं उनका अपिंड अर्थात् शय्यातर पिंड नहीं वह शय्यातरपिंड है। वह वर्ण्य है। शेष पत्नियों के घर का होता। वह भी दो प्रकार के दोषों-भद्रक और प्रान्तकृतदोष पिंड भी भद्रक-प्रान्त दोषों के परिहार के कारण वर्जनीय है। के कारण वर्जनीय है।
३५६६.एगत्थ रंधणे भुंजणे य वज्जेंति भुत्तसेसं पि। ३५६३.एगे महाणसम्मी, एक्कतो उक्खित्ते सेसपडिणीए। एमेव वीसु रद्धे, भुंजंति जहिं तु एगत्था॥ ___ जेट्टाए अणुण्णवणा, पउत्थे सुय जेट्ठ जाव पभू॥ एकत्र पकाया और एकत्र खाया-इस प्रथम विकल्प में
शय्यातर के देशान्तरगमन करने पर उसकी जो पत्नियां शेष भोजन का ग्रहण भी वर्जनीय है। इसी प्रकार पृथक् हैं उनके भोजन विषयक चार विकल्प हैं
पकाया और एकत्र खाया-इस तृतीय विकल्प में शेष बचे १. एक स्थान पर पकाया, एक स्थान पर खाया। भोजन का ग्रहण भी वर्ण्य है। २. एक स्थान पर पकाया, पृथक् पृथक् स्थानों पर ३५६७.निययं व अणिययं वा, जहिं तरो भुंजती तु तं वज्ज। खाया।
सेसासु वि ण य गिण्हति, मा छोभगमादि भहाई॥ ३. पृथक् स्थानों पर पकाया, एक स्थान पर खाया।
शय्यातर जिस पत्नी के घर में नियत-प्रतिदिन भोजन ४. पृथक् स्थानों पर पकाया, पृथक् स्थानों पर खाया। करता है अथवा अनियत-बारी-बारी से भोजन करता
एक रसोईघर में पकाया और एकत्र खाया-यह पहला है-दोनों वयं हैं। शेष पत्नियों के घर से भी भोजन भंग गृहीत है। एक स्थान पर खाया और पृथक् स्थान पर ग्रहण नहीं करते क्योंकि उसमें भद्रक-प्रान्तकृत क्षोभक दोष पकाया-यह तीसरा भंग है। शेष प्रत्यानीत अर्थात् एकत्र होते हैं।' पकाया और एकत्र खाया और जो शेष बचा उसको पत्नियां ३५६८.दोसु वि अव्वोच्छिण्णे, सव्वं जंतम्मि जं च पाउम्गं। अपने-अपने घर ले गई। भद्रक और प्रान्त दोषों को ध्यान में
खंधे संखडि अडवी, असती य घरम्मि सो चेव॥ रखकर उस पिंड का भी वर्जन करना चाहिए। शय्यातर की कोई शय्यातर देशान्तर जाने का इच्छुक होकर गांव के अनुपस्थिति में उसकी ज्येष्ठ भार्या से अनुज्ञा लेनी चाहिए। बाहर रहता है। उसके दोनों नगर के भीतर का घर और १. भद्रक शय्यातर शेष पत्नियों के घर में भोजन सामग्री का कल्पता है तो मेरे आधार पर जीवन यापन करने वाली मेरी पत्नियों
छोभक-प्रेक्षेप करा देते हैं। वह सोचता है-मेरे घर से भोजन ग्रहण के घर का पिंड कैसे कल्पता है? इस प्रकार वह प्रविष्ट होकर नहीं करेंगे, वहां से तो ले ही लेंगे। ऐसा करके भी मैं पुण्य का उपार्जन साधुओं को प्रतिश्रय से निकाल देता है। करूं। प्रान्तक शय्यातर सोचता है-यदि मेरे घर का पिंड नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org