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भूमिका
संयमयोगों में उद्यमशील हं, फिर मेरा पढ़ने से क्या प्रयोजन ?' आचार्य ने शिष्य को प्रतिबोध देने के लिए दो दृष्टान्त उपस्थित किए हैं:
१. जैसे हाथी स्नान करने के पश्चात् अपने शरीर पर प्रचुर मात्रा में धूली डाल लेता है, वैसे ही संयम में अच्छी तरह उद्यमशील अज्ञानी साधु भी कर्ममल का उपचय करता है।
२. जैसे हाथीपगा व्यक्ति जितने प्रमाण में खेत का निदान करता है, उससे भी अधिक धान्य को अपने पैरों से रौंद डालता है। इसी प्रकार श्रुतपाठ के बिना चारित्ररूपी सस्य को असंयमरूपी पंक में डाल देता है।
श्रुत के अध्ययन से निष्पन्न होने वाले गुणों की चर्चा करते हुए भाष्यकार ने गाथा ११६२ में आठ गुणों का उल्लेख किया है-आत्महित, परिज्ञा, भावसंवर, नया-नया संवेग, निष्कम्पता, तप, निर्जरा और परदेशिकत्व। तप एवं निर्जरा का महत्त्व उजागर करते हुए उन्होंने लिखा है
बारसविहम्मि वि तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसलदिढे। न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झायसमं तवोकम्म॥
तीर्थंकरों द्वारा दृष्ट बाह्य और आभ्यन्तर रूप में विभक्त बारह प्रकार के तपःकर्म में स्वाध्याय के समान दूसरा कोई तपःकर्म न है और न होगा।
जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहयाहिं वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ - ऊसासमेत्तेण॥'
अज्ञानी जीव जिन कर्मों का क्षय अनेक कोटि वर्षों में करता है, उन्हीं कर्मों का क्षय तीन गुप्तियों से गुप्त ज्ञानी साधक उच्छवास मात्र कालमान में कर देता है।
विभिन्न जनपदों में विहार करने से भाष्यकार की ज्ञान-चेतना और अनुभव-चेतना भी समृद्ध हो गई। अपनी इसी चेतना के द्वारा तत्कालीन कृषि-व्यवस्था और जीवन-निर्वाह की प्रक्रिया प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है
• लाट देश में वर्षा के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • सिन्धु देश में नदी के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • द्रविड़ देश में तालाब के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • उत्तरापथ में कुएं के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। . बनास जनपद में बाढ़ के पानी से धान्य की निष्पत्ति होती है। • डिंभरेलक नगर में महिरावण नदी के पूर से धान्य की निष्पत्ति होती है। • कानन द्वीप में नौका द्वारा आनीत धान्य से जीवन-यापन किया जाता है। • मथुरा में धान्य के व्यापार से जीवन-यापन किया जाता है। • दुर्भिक्ष में मांसाहार जीवन-यापन का साधन बनता है।
• कोंकण देश के मनुष्य पुष्प और फलभोजी होते हैं।" जिनकल्प की पांच तुलाएं
जिनकल्प की साधना हर कोई साधक नहीं कर सकता। उसके लिए विशेष अर्हता का अर्जन आवश्यक माना गया है। जिनकल्प साधना की अर्हता प्रमाणित करने वाली पांच तुलाएं-भावनाएं बताई गई हैं-तप, सत्व, श्रुत, एकत्व और
१.भा. गा.११४७,११४८वृ. पृ. ३५७,३५८। २. विस्तार हेतु देखें बृभा. गा. ११६३-११७१। ३. बृभा. गा. ११६९।
४. बृभा. गा. १९७०। ५. बृभा. गा. १२३९ वृ. पृ. ३८३,३८४।
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