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________________ पहला उद्देशक २३१ स्वरवर्जित की तरह मंद-मंद पाठ करे। वह यथास्वर से ही धर्मकथा करे, क्योंकि मधुर स्वरों में धर्मकथा करने पर श्रावक आदि बहुत बंध जाते हैं। मधुर स्वर में धर्मकथा करने पर प्रातः संयती के पूछने पर साधु यह न बताएं कि अमुक साधु ने धर्मकथा की थी। २२७४.कडओ व चिलिमिली वा, तत्तो थेरा य उच्च नीए वा। पासे ततो न उभयं, मत्तग जयणाऽऽउल ससद्दा॥ उस वसति में रहते हुए यदि प्रवेश और निर्गमन में साधु-साध्वी परस्पर दीखते हों तो वहां बांस से बनी हुई सघन चटाई अथवा चिलिमिली बांध दे। एक ओर स्थविर मुनि और दूसरी ओर क्षुल्लिका साध्वियां बैठ जाएं। ऊपर के भाग में या नीचे के भाग में बैठने की भी यही यतना है। यदि पास में या पीछे प्रतिश्रय हो तो दोनों एक ही दिशा में उत्सर्ग के लिए न जाएं। वैसी स्थंडिल भूमी न मिले तो मात्रक का उपयोग करे अथवा आकुल होकर शब्द करते हुए वहां जाएं। २२७५.पिहदारकरण अभिमुह, चिलिमिलि वेला ससद्द बहु निंति। साहीए अन्नदिसिं, निती न य काइयं तत्तो॥ परस्पर अभिमुखद्वार वाली वसति में रहना पड़े तो द्वार पर चिलिमिली डाल दे तथा संज्ञा विसर्जन की वेला हो तो अनेक मुनि सशब्द करते हुए निकलें। जहां एक ही गली हो तो अन्य दिशा में द्वार वाले प्रतिश्रय में रहे। जिस ओर साध्वियों का प्रतिश्रय हो उस ओर कायिकी भूमी में न जाएं। २२७६.जत्थऽप्पतरा दोसा, जत्थ य जयणं तरंति काउं जे। तत्थ वसंति जयंता, अणुलोमं किं पि पडिलोमं॥ जिस उपाश्रय में अल्पतर दोष हों और जहां यतना का पालन किया जा सकता है, वहां मुनि यतनापूर्वक रहें। वह उपाश्रय अनुकूल हो या प्रतिकूल, परंतु पूर्ण यतना रखें। २२७७.आय-समणीण नाउं, किढि कप्पट्ठी समाणयं वज्जे। बहुपाडिवेसियजणं, च खमयरं एरिसे होइ॥ स्वयं का तथा श्रमणी वर्ग को जानकर उचित यतना करे। स्थविर साध्वियों को तथा क्षुल्लक साध्वियों को दोनों ओर करके, समान वय वाली साध्वियों के संदर्शन का वर्जन करे। जो वसति अनेक पड़ौसियों से युक्त हो वह रहने योग्य होती है। २२७८.पउमसर वियरगो वा, वाघातो तम्मि अभिनिवगडाए। तम्मि वि सो चेव गमो, नवरं पुण देउले मेलो॥ जिस गांव के अनेक वगड़ा और प्रवेश-निर्गमन द्वार हो और पद्मसरोवर या कोई गर्ता व्यवधानरूप हो तो वहां भी वही यतना ज्ञातव्य है। केवल देवकुल में दृष्टि आदि के कारण साधु-साध्वियों का संगम होता है। २२७९.अंतो वियार असई, अज्जाण हविज्ज तइयभंगम्मि। संकिट्ठगवीयारे, व होज्ज दोसा इमं नायं॥ तीसरे भंग वाली अर्थात् आपात-असंलोक वाली विचारभूमी भीतर न हो तो साध्वियां बाहर जाती हैं, वहां संक्लिष्ट विचारभूमी के दोष होते हैं। अर्थात् एक द्वार के कारण अन्य संज्ञाभूमी न होने के कारण मुनि भी वहीं आते हैं। आते-जाते दोनों का मिलना होता है। यहां यह दृष्टांत है। २२८०.वासस्स य आगमणं, महिला कुड णंतगे व रत्तट्ठी। देउलकोणे व तहासंपत्ती मेलणं होज्जा॥ २२८१.गहिओ अ सो वराओ, बद्धो अवओडओ दवदवस्स। संपाविओ रायकुलं, उप्पत्ती चेव कज्जस्स॥ २२८२.जाणंता वि य इत्थिं, दोसवई तीए नाइवग्गस्स। पच्चयहेउं सचिवा, करेंति आसेण दिद्रुतं ।। २२८३.वम्मिय कवइय वलवा, अंगणमज्झे तहेव आसो य। वलवाए अवंगुणणं, कज्जस्स य छेदणं भणियं॥ कोई महिला कुसुंभरक्तवस्त्र युगल को पहन कर पानी लाने निकलती है। वर्षा आ जाती है तब महिला यह सोचती है कि वर्षा के पानी से कुसुंभरक्तवस्त्रों का रंग न मिट जाए, इसलिए वह दोनों वस्त्रों को घड़े में डालकर स्वयं अप्रावृत होकर देवकुल में प्रवेश करती है। वहां पहले से ही एक अनगार देवकुल के कोणे में स्थित है। उसने उस महिला को अप्रावृत अवस्था में देख लिया। ऐसे संयोग में दोनों का मिलन हुआ। राजपुरुष ने देख लिया। वह उस अनगार को पकड़ लेता है, उसे बांधकर, उसकी ग्रीवा को पीछे की ओर मोड़कर, हाथों को पीछे बांध शीघ्र ही राजकुल में ले आता है। वहां कारणिक-धर्माधिकारी के द्वारा पूछने पर वह यथार्थ बात कह देता है। यह जानते हुए भी कि स्त्री दोषवती है, वह धर्माधिकारी उस स्त्री के ज्ञातिजनों के विश्वास के लिए अश्व का दृष्टांत कहता है-एक घोड़ी राजा के आंगन में है। वह वर्मित अर्थात् लघु तनुवाणयुक्त है तथा कवचित अर्थात् कवच पहने हुए है। उसी आंगन में एक अश्व भी है। वह अश्व उससे सहवास करने के लिए दौड़ता है, परंतु सहवास कर नहीं सकता। यदि घोड़ी को अप्रावृत कर दिया जाए तो दोनों का सहवास सुकर हो सकता है। इसी प्रकार यदि यह स्त्री अप्रावृत नहीं होती तो यह अनर्थ घटित नहीं होता। कारणिक-धर्माधिकारी ने तब यह निर्णय दिया कि स्त्री ही अपराधकारिणी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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