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-बृहत्कल्पभाष्यम्
२२८४.एवं खु लोइयाणं, महिला अवराहि न पुण सो पुरिसो। और अभिनिद्वार वाली वसति में, संयतीक्षेत्र में गीतार्थ
इह पुण दोण्ह वि दोसो, सविसेसो संजए होइ॥ यतनापूर्वक रहते हैं। इस प्रकार वह लौकिक महिला अपराधिनी मानी गई, २२८९.पिहगोअर-उच्चारा,जे अब्भासे वि होति उ निओया। पुरुष नहीं। लोकोत्तर प्रसंग में संयत और संयती दोनों का वीसुं वीसुं वुत्तो, वासो तत्थोभयस्सावि॥ दोष माना जाता है, फिर भी विशेष दोष संयत का होता है, मूल क्षेत्र के निकट अन्य नियोग-गांव होते हैं, वे पृथक् मुनि का होता है।
गोचरचर्या वाले तथा पृथक् उच्चारभूमी वाले होते हैं। ऐसे २२८५.पुरिसुत्तरिओ धम्मो, पुरिसे य धिई ससत्तया चेव। क्षेत्रों में साधु-साध्वियों को पृथग्-पृथग् उपाश्रय में निवास
पेलव परज्झ इत्थी, फुफुग-पेसीए दिÉतो॥ किया जा सकता है। क्योंकि पुरुषोत्तर धर्म है। पुरुष में धृति-मानसिक २२९०.तं नत्थि गाम-नगरं, जत्थियरीओ न संति इयरे वा। स्वस्थता तथा सत्त्व की संपन्नता होती है। इस स्थिति में यदि पुणरवि भणामु रन्ने, वस्सउ जइ मेलणे दोसा॥ वह प्रतिसेवना करता है तो विशेष दोषी है। स्त्री निःसत्त्व ऐसा कोई ग्राम और नगर नहीं है जहां पार्श्वस्थ आदि और परवश होती है। यहां फुफुक और पेशी का दृष्टांत संप्रदाय की साध्वियां न हों अथवा इतर-पार्श्वस्थ आदि न वक्तव्य है। (जैसे करीषाग्नि को चालित करने से वह उद्दीप्स हों। तो हम पुनः कहते हैं कि परस्पर मेलना का दोष होता होती है, उसी प्रकार स्त्रीवेद भी। जैसे पेशी सभी के द्वारा हो तो वन में निवास करना चाहिए। अभिलषणीय होती है, वैसे ही स्त्री भी।)
२२९१.दिट्ठतो पुरिसपुरे, मुरुडदूतेण होइ कायव्वो। . २२८६.जइ वि य होज्ज वियारो,अंतो अज्जाण तइयभंगम्मि।
जह तस्स ते असउणा, तह तस्सितरा मुणेयव्वा॥ तत्थ वि विकिंचणादीविनिग्गयाणं तु ते दोसा।। यहां पुरुषपुर में मुरुण्डदूत का दृष्टांत कहना चाहिए। यदि तीसरे विकल्प के अनुसार आर्यायों के आपात- उस दूत के लिए रक्तपट वाले अशकुन होते थे। उसी प्रकार असंलोक वाली विचारभूमी भीतर में प्राप्त हो, फिर भी मुनि के पार्श्वस्थ आदि की संयतियां दोषकरी नहीं होती। परिष्ठापन आदि के लिए निर्गत होने पर पूर्वोक्त दोष हो २२९२.पाडलि मुरुडदूते, पुरिसपुरे सचिवमेलणाऽऽवासो। सकते हैं।
भिक्खू असउण तइए, दिणम्मि रन्नो सचिवपुच्छा। २२८७.एते तिन्नि वि भंगा, पढमे सुत्तम्मि जे समक्खाया। २२९३.निग्गमणं च अमच्चे, सब्भावाऽऽइक्खिए भणइ दूयं ।
__ जो पुण चरिमो भंगो, सो बिइए होइ सुत्तम्मि। अंतो बहिं च रच्छा, नऽरहिंति इहं पवेसणया।
प्रथम वगडा सूत्र में ये तीनों भंग-(१) एक वगडा, एक पाटलिपुत्र नगर में मुरुंड नाम का राजा था। एक बार द्वार (२) एक वगडा अनेक द्वार (३) अनेक वगडा, एक उसका दूत पुरुषपुर में गया। सचिव से वह मिला। सचिव ने द्वार-समाख्यात हैं। जो चरम भंग है-अनेक वगडा, अनेक उसे आवासस्थल दिया। वह राजा को देखने-मिलने के द्वार-वह दूसरे सूत्र में व्याख्यात है।
लिए प्रस्थान करता, परंतु रक्तपट वाले भिक्षुओं का
अपशकुन होता। वह लौट आता। तीसरे दिन राजा ने सचिव से गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा अभि- से पूछा। निव्वगडाए अभिनिवाराए अभिनिक्खमण
अमात्य अपने स्थान से प्रस्थित हुआ। दूत के आवास पर प्पवेसाए कप्पइ निग्गंथाण य निग्गंथीण य
आया और राजभवन में न आने का कारण पूछा। दूत ने
यथार्थ बात अमात्य को बता दी। अमात्य तब दूत से बोलाएगयओवत्थए।
इन रक्तपट भिक्षुओं का मार्ग के भीतर या बाहर अपशकुन (सूत्र ११)
नहीं होता, क्योंकि यह नगर इनसे भरा पड़ा है। यह सुनकर
दूत राज भवन में प्रवेश कर गया। २२८८.एयद्दोसविमुक्के, विच्छिन्न वियारथंडिलविसुद्धे। २२९४.जह चेव अगारीणं, विवक्खबुद्धी जईसु पुव्वुत्ता।
अभिनिव्वगड-दुवारे, वसंति जयणाए गीयत्था॥ तह चेव य इयरीणं, विवक्खबुद्धी सुविहिएसु॥ जो क्षेत्र प्रथम सूत्रोक्त दोषों से विप्रमुक्त हो, विस्तीर्ण हो, जैसे यह कहा जा चुका है (गाथा २१७०) कि स्त्रियों की विचार और स्थंडिलभूमी से विशुद्ध हो अर्थात् भिक्षाचर्या मुनियों के प्रति विपक्षबुद्धि होती है वैसे ही पार्श्वस्थ संयतियों
और संज्ञाभूमी से दोषमुक्त हो, इस प्रकार के अभिनिवगडा का भी सुविहित साधुओं के प्रति विपक्षबुद्धि होती है। Jain Education International
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