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पहला उद्देशक
आवणगिहादिसु वासविधिनिसेध-पदं
नो कप्पइ निग्गंथीणं आवणगिहंसि वा रच्छामुहंसि वा सिंघाडगंसि वा तियंसि वा चउक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि वा वत्थए ॥
(सूत्र १२)
२२९५.एयारिसखेत्तेसुं, निग्गंथीणं तु संवसंतीणं । केरियम्मि न कप्पर, वसिऊण उवस्सए जोगो ॥ ऐसे क्षेत्रों में अर्थात् पृथग् वगडा और पृथग् द्वारवाले क्षेत्रों में रहने वाली साध्वियों को कैसे उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता ? यह सूत्र से योग है संबंध है। २२९६.दिट्ठमुवस्सयगहणं, तत्थऽज्जाणं न कप्पर इमेहिं । वृत्ता सपक्खओ वा, दोसा परपक्खिया इणमो ॥ पहले सूत्र से यह ज्ञात होता है कि उपाश्रय का ग्रहण कैसे 'किया जाये ? साध्वियों को इन उपाश्रयों में रहना नहीं कल्पता वह इस सूत्र में प्रतिपादित है। अथवा स्वपक्ष वाले साधुसाध्वियों के परस्पर दोष बताए गए हैं। अब परपाक्षिक अर्थात् गृहस्थों से होने वाले ये दोष बताये जा रहे हैं। २२९७. आवणहि रच्छाए, तिए चउक्कंतरावणे तिविहे ।
ठायंतिगाण गुरुगा, तत्थ वि आणाइणो दोसा ॥ आपणगृह, रथ्यामुख, त्रिक, चतुष्क, तीन प्रकार के अन्तरापणों में रहने वाली साध्वियों के, प्रत्येक में रहने से, चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २२९८. जं आवणमज्झम्मी, जं च गिहं आवणा य दुहओ वि ।
तं होइ आवणगिहं, रच्छामुह रच्छपासम्मि॥ जो गृह आपणों के मध्य में हो अर्थात् चारों ओर आपण हों या जिस गृह के दोनों ओर आपण हों, वह आपणगृह होता है । रथ्यामुख अर्थात् रथ्या के पार्श्व में होने वाला गृह । २२९९.तं पुण रच्छमुहं वा, बाहिमुहं वा वि उभयतोमुहं वा ।
अहवा जत्तो पवहs, रच्छा रच्छामुहं तं तु ॥ रथ्या के पास वाला गृह, रथ्या के अभिमुख वाला गृह, वह गृह जिसके पीछे रथ्या हो, अथवा उभयतोमुख वाला गृह-एक द्वार रथ्या के पराङ्मुख में खुलता हो, एक द्वार रथ्या के अभिमुख खुलता हो, अथवा जिस गृह से रथ्या जाती हो वह रथ्यामुख कहलाती है।
२३००. सिंघाडगं तियं खलु, चउरच्छसमागमो चउक्कं तु । छण्हं रच्छाण जहिं पवहो तं चच्चरं बिंती ॥ जहां तीन मार्ग मिलते हों, वह श्रृंगाटक कहलाता है।
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जहां चार मार्गों का समागम होता है वह चतुष्क और जहां छह मार्गों का निर्गम होता है वह चत्वर कहलाता है। २३०१. अह अंतरावणो पुण, वीही सा एगओ व दुहओ वा ।
तत्थ गिह अंतरावण, गिहं तु सयमावणो चेव ॥ जिस गृह के एक ओर अथवा दोनों ओर वीथी होहट्टमार्ग हो, वह गृह अंतरापण कहलाता है। अथवा जो गृह स्वयं आपण का कार्य संपादित करता है वह गृह अंतरापण कहलाता है।
२३०२. आवण रच्छगिहे वा, तिगाइ सुन्नंतरावणुज्जाणे ।
चउगुरुगा छल्लहुगा, छग्गुरुगा छेय मूलं च ॥ साध्वियां यदि आपणगृह में रहती हैं तो चतुर्गुरु, रथ्यामुख में रहती हों तो षड्लघु, त्रिक-चतुष्क- चत्वर में रहने पर षड्गुरु, शून्यगृह और अंतरापण में रहने पर छेद और उद्यान में रहने पर मूल प्रायश्चित्त आता है। (यह प्रायश्चित्त का विधान सामान्य भिक्षुणियों के लिए है। प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी आदि के लिए विशेष प्रायश्चित्त का विधान टीका में प्राप्त है | )
२३०३. सव्वेसु वि चउगुरुगा, भिक्खुणिमाईण वा इमा सोही ।
चउगुरुविसेसिया खलु, गुरुगादि व छेदनिट्ठवणा ॥
अथवा सभी आपणगृह आदि में चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। अथवा भिक्षुणी आदि के लिए यह शोधि- प्रायश्चित्त हैचतुर्गुरु, तप और काल से विशेषित । अथवा चतुर्गुरु से प्रारंभ कर छेद पर्यन्त जैसे भिक्षुणी के सभी स्थानों में चतुर्गुरुक, अभिषेका के षड्लघुक, गणावच्छेदिनी के षड्गुरुक और प्रवर्तिनी के छेद ।
२३०४.तरुणे वेसित्थि विवाह रायमादीसु होइ सइकरणं ।
इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व ताओ वा ॥ आपणगृह आदि में ठहरी हुई साध्वियां तरुण व्यक्तियों को, वेश्याओं को, विवाह को तथा राजा आदि को देखकर भुक्त भोगों का स्मरण कर सकती हैं। यदि वे तरुणों से समागम की इच्छा करती हैं तो संयमविराधना होती है और यदि इच्छा नहीं करती हैं तो तरुण उड्डाह आदि करते हैं। स्तेन उनकी उपधि का अथवा उनका अपहरण कर लेते हैं।
२३०५. चउहालंकारविउव्विए तहिं दिस्स सललिए तरुणे । लडहपयंपिय-पहसिय-विलासगइ - णेगविहकिड्डे ।।
चार प्रकार के अलंकार - वस्त्र, पुष्प, गंध तथा आभरणसे अलंकृत तथा सललित तरुणों को देखकर और उनकी मनोज्ञ वाणी, हास्य-विलासयुक्त गति तथा अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं को देखकर मोहोदय होता है।
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