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=बृहत्कल्पभाष्यम्
मनुष्य प्राणों से वियुक्त हो जाता है-मर जाता है। इन दसों आपको दिलाऊंगी। कुछ दिनों के बाद उस साध्वी ने वेगों का मैं क्रमशः प्रायश्चित्त कहूंगा।
पूछा-आर्य! आप दुर्बल कैसे दीख रहे हैं। २२६२.मासा लहुओ गुरुओ,चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। २२६८.संदसणेण पीई, पीईउ रई रईउ वीसंभो।
छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च॥ वीसंभाओ पणओ, पंचविहं बड्डए पिम्म। प्रथम वेग में लघुमास, दूसरे में गुरुमास, तीसरे में चार . दोनों के परस्पर देखने से प्रीति होती है. प्रीति से रतिलघुमास, चौथे में चार गुरुमास, पांचवें में छह लघुमास, छठे चित्त की विश्रान्ति, रति से विश्रंभ-विश्वास होता है, में छह गुरुमास, सातवें में छेद, आठवें में मूल, नौवें में। विश्वास से प्रणय-अशुभ राग पैदा होता है इन पांच प्रकारों अनवस्थाप्य और दसवें में पारांचिक।
से प्रेम बढ़ता है। २२६३.एक्कम्मि दोसु तीसु व, ओहावितेसु तत्थ आयरिओ। २२६९.जह जह करेसि नेह, तह तह नेहो मे वड्डइ तुमम्मि। मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं॥
तेण नडिओ मि बलियं, जं पुच्छसि दुब्बलतरो ति॥ यदि मोहोदय से प्रताडित होकर एक मुनि उत्प्रवजित हो मुनि कहता है-जैसे-जैसे तुम घी की व्यवस्था करती हो जाता है तो आचार्य को 'मूल' का प्रायश्चित्त आता है। दो वैसे-वैसे तुम्हारे प्रति मेरा स्नेह बढ़ता जाता है। उस स्नेह मुनियों के अवधावन से अनवस्थाप्य और तीन मुनियों के से मैं विडंबित हो रहा हूं। जो तुम मेरी दुर्बलता के विषय में अवधावन से पारांचिक प्रायश्चित्त आता है।
पूछती हो कि मैं दुर्बलतर क्यों हूं, इसी कारण से मैं २२६४.धम्मकहासुणणाए, अणुरागो भिक्खसंपयाणे य।। दुर्बल हूं।
___संगारे पडिसुणणा, मोक्ख रहे चेव खंडीए॥ २२७०.अमुगदिणे मुक्ख रहो,होहिइ दारं व वोज्झिहिइ रत्तिं। मुनि द्वारा प्रदत्त धर्मकथा सुनकर साध्वी के मन में
तइया णे पूरिस्सइ, उभयस्स वि इच्छियं एयं॥ अनुराग उत्पन्न होता है और तब वह भिक्षा आदि लाकर मुनि वह साध्वी कहती है-अमुक दिन रथयात्रा है। उस दिन को देती है। फिर संकेत का आदान-प्रदान होता है। संकेत साधु-साध्वियों के चले जाने पर रक्षा करने वालों से हमारी यह होता है-अमुक दिन रथयात्रा निकलेगी। उस दिन हमारी मुक्ति हो जाएगी। उस दिन रात्री में दरवाजा खुला रहेगा। रक्षा करने वालों से हम मुक्त हो जाएगी। छंडिका का द्वार उस समय हम दोनों की यह इच्छा पूरी होगी। (इस प्रकार रात्री में खुला रहेगा।
प्रतिसेवना कर, स्वयं को भग्नव्रत वाला जानकर अवधावन २२६५.असुभेण अहाभावेण वा वि रत्तिं निसंतपडिसंते। कर लेते हैं।)
वत्तेइ किन्नरो इव कोई पुच्छा पभायम्मि॥ २२७१.एगम्मि दोसु तीसु व, ओहावंतेसु तत्थ आयरिओ। कोई श्रमण अशुभ भावना से प्रेरित होकर अथवा मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं॥ यथाभाव से रात्री में जब सारे लोग अपने-अपने घरों में एक, दो, तीन मुनियों का अवधावन होने पर आचार्य को विश्राम करते हैं तब वह मुनि उस किन्नर की भांति मधुर क्रमशः मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त प्राप्त वाणी में धर्मकथा करता है, उसको सुनकर कोई साध्वी । होता है। प्रभातकाल में पूछती है
२२७२.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण पडिलोमं । २२६६.कतरो सो जेण निसिं, कन्ना णे पूरिया व अमयस्स।
गीयत्था जयणाए, वसंति तो अभिदुवाराए॥ सो मि अहं अज्जाओ!, आसि पुरा सुस्सरो किं वा॥ मार्ग में प्रस्थित मुनि अथवा अशिव आदि के कारण से वे आपमें से किस साधु ने रात्री में प्रवचन कर हमारे कानों अकस्मात् संयतीक्षेत्र में आ गए। वे निरुपहत वसति की तीन को अमृत से भर दिया था। तब धर्मकथाकारक मुनि सामने बार मार्गणा करते हैं, फिर भी यदि वह नहीं मिलती है तो आकर कहता है-आर्या! वह मैं था। पहले मेरा स्वर बहुत । प्रतिलोम के क्रम से गीतार्थ मुनि अनेकद्वार वाले संयतीक्षेत्र सुन्दर था। अब मेरा स्वर इतना मीठा नहीं रहा।
में यतनापूर्वक रहते हैं। २२६७.रुक्खासणेण भग्गो, कंठो मे उच्चसइपढओ य। २२७३.सिंगारवज्ज बोले, अह एगो विज्जपाढऽणुच्चं च।
__ संथुय कुलम्मि नेह, दावेमि कए पुणो पुच्छा। सड्ढादीनिब्बंधे, कहिए वि न ते परिकहिंति॥
रूक्ष आहार करने के कारण मेरा कंठ भग्न हो गया है। वहां धर्मकथा करते हुए शृंगार रस का वर्जन करते हुए ऊंचे स्वर से पढ़ने के कारण भी मेरा कंठ भग्न हो गया। यह समूह में धर्मकथा करे जिससे किसी एक का व्यक्त स्वर सुनकर कोई साध्वी कहती है-मैं भावितकुल से घी आदि उपलक्षित नहीं होता। अकेला यदि करे तो वैद्यपाठ की भांति
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