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पहला उद्देशक
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२२९
आचार्य के गुरुमास से प्रारब्ध चतुर्गुरुक पर्यन्त। यह पहला प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु और तप से लघु। रहित सकाम में आदेश है।
चतुर्गुरु, तप से गुरु। प्रकाम में चतुर्गुरु और तप और काल २२४९.दोहि वि रहिय सकामं, पकाम दोहिं पि पेक्खई जो उ। से भी गुरु।।
चउरो य अणुग्घाया, दोहि वि चरिमस्स दोहि गुरु॥ २२५५.एक्केक्काए पयाओ, साहीमाईसु ठायमाणाणं । दूसरा आदेश यह है
__ निकारणट्ठियाणं, सव्वत्थ वि अविहिए दोसा।। दोनों आंखों से देखना, 'अरहित' कहलाता है और एक अरहित, रहित, सकाम, प्रकाम निरीक्षण आदि एक-एक आंख से देखना वह 'रहित' कहलाता है। दोनों के दो-दो पद से गली में या प्रति मुखद्वार वाले उपाश्रय, आगे, पीछे, प्रकार हैं-सकाम (एक बार) और प्रकाम (अनेक बार)। दोनों ऊपर, नीचे-इन सबमें निष्कारण रहने या कारणवश से जो देखता है उसे चार अनुद्घात मास का प्रायश्चित्त अयतनापूर्वक रहने से ये दोष होते हैं। आता है। यह प्रायश्चित्त भी तप और काल से गुरु होता है। २२५६.दिट्ठा अवाउडा हं, भयलज्जा थद्ध होज्ज खित्ता वा। चरम भंग वाले के तप और काल से गुरु होते हैं।
पडिगमणादी व करे, निच्छक्काओ व आउभया॥ २२५०.पायठिओ दोहिं नयणेहि पिच्छई रहिय मोत्तु एक्केणं। ___ कोई साध्वी विचारभूमी में गई। मुनि को आते हुए
तं पुण सई सकामं, निरंतरं होइ उ पकामं॥ देखकर सोचती है-मुनि ने मुझे अपावृत देख लिया है। अतः यदि मुनि खड़ा-खड़ा दोनों आंखों से देखता है, वह वह लज्जा से, भय से स्तब्ध होकर क्षिप्तचित्त वाली हो जाती अरहित है। एक आंख को छोड़कर एक से देखता है, वह है। कोई साध्वी इससे प्रतिगमन आदि कर लेती है। कोई रहित है। जो एक बार देखता है वह सकाम और बार-बार निर्लज्ज हो जाती है। उससे आत्मसमुत्थ और परसमुत्थदेखता है, निरंतर देखता है वह प्रकाम है।
दोनों प्रकार के दोष हो सकते हैं। २२५१.अहवण समतलपादो, दोहिं वि रहिअं तु अग्गपाएहि। २२५७.तासिं कक्खंतर-गुज्झदेस-कुच-उदर-ऊरुमादीए।
इट्टालादी विरह, एकेक सकामग पकामं॥ निग्गहियइंदियस्स वि, दटुं मोहो समुज्जलति॥ अथवा समतलपाद से जो देखता है वह अरहित और साध्वियों के कक्षांतर, गृह्यप्रदेश, कुच, उदर, ऊरु आदि अग्रपाद से स्थित होकर देखता है वह रहित है। अथवा ईंटों शरीरावयवों को देखकर निगृहीतेन्द्रिय व्यक्ति के भी मोह का आदि पर चढ़कर देखता है वह अरहित है और इतर रहित उदय हो जाता है, दूसरे की तो बात ही क्या। है। दोनों सकाम और प्रकाम के भेद से द्विधा हैं।
२२५८.चिंता य दट्टमिच्छइ, दीहं नीससइ तह जरो दाहो। २२५२.अहवण उच्चावेठ, कर-विटय-पीढगादिसुं काउं।
भत्तअरोयग मुच्छा, उम्मत्तो न याणई मरणं॥ ताई वा वि पमोत्तुं, रहियं बिट्ठो पुण निसिज्ज॥ उससे वे दस प्रकार के कामवेग उत्पन्न होते हैं-चिंता, अथवा शिर या शरीर को ऊंचा कर देखना या हाथ, देखने की इच्छा, दीर्घनिःश्वास, ज्वर, दाह, भोजन की विंटिका, पीढे पर सिर ऊंचाकर देखना अरहित है अथवा अरुचि, मूर्छा, उन्मत्तता, कुछ न जानने की स्थिति और हाथ, विटिका आदि को छोड़कर देखना रहित है। अथवा मरण। बैठा-बैठा निषद्या को छोड़कर देखना रहित है।
२२५९.पढमे सोयइ वेगे, दटुं तं इच्छई बिइयवेगे। २२५३.दिट्ठीसंबंधो वा, दोण्ह वि रहियं तु अन्नतरगत्ते। नीससइ तइयवेगे, आरुहइ जरो चउत्थम्मि।
अप्पो दोसो रहिए, गुरुकतरो उभयसंबंधे॥ २२६०.डज्झइ पंचमवेगे, छठे भत्तं न रोयए वेगे। अथवा एक-दूसरे की आंख का संबंध हो तो वह अरहित
सत्तमगम्मि य मुच्छा, अट्ठमए होइ उम्मत्तो॥ और एक-दूसरे का शरीर देखे तो रहित है। एक का दृष्टि- २२६१.नवमे न याणइ किंची, दसमे पाणेहिं मुच्चई मणूसो। संबंध अल्प दोष वाला होता है, वह रहित है। दोनों का
एएसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहाणुपुव्वीए। दृष्टिसंबंध अरहित होता है, गुरुतर दोष वाला होता है।
पहले कामवेग में उसकी संप्राप्ति की चिंता रहती है। २२५४.दोहिं वि अरहिय रहिए, एक्केक्क सकामए पकामे य।। दूसरे में उसे देखने की इच्छा होती है। तीसरे में वह दीर्घ
गुरुगा दोहि वि लहुगा, लहु गुरुग तवेण दोहिं पि॥ निःश्वास लेता है। चौथे में वह ज्वरग्रस्त हो जाता है। पांचवें दोनों-अरहित और रहित अनेक प्रकार के होते हैं। में शरीर जलने लगता है। छठे में भक्तपान के प्रति अरुचि प्रत्येक सकाम और प्रकाम-इन दो भेदों से विभक्त है। सकाम उत्पन्न हो जाती है। सातवें में वह मूर्छा से ग्रस्त होता है। का प्रायश्चित्त है चतुर्गुरु। तप और काल से लघु। प्रकाम का आठवें में वह उन्मत्त, नौवें में वह निश्चेष्ट और दसवें में वह
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