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कुमार अवस्था में प्रव्रजित कोई मुनि कुतूहल वश सोचते हैं अमुक साध्वी का वर्ण और शारीरिक परिमाण देखें, इसलिए वे किसी छिद्र में से देखते हैं। इससे संयमच्युत होने की संभावना रहती है।
२२३८. बुब्बलपुच्छेगयरे, खमणं किं तं ति मोहभेसनं । तह वि य वारियवामो बलियतरं बाहए मोहो ॥ साधु-साध्वी परस्पर मिलने पर एक-दूसरे को दुर्बलतर देखकर साध्वी साधु को पूछती है - दुर्बल क्यों ? साधु कहता है - मैं तपस्या कर रहा हूं। तपस्या क्यों ? मोह की चिकित्सा के लिए। फिर भी मोह निवारित न होकर और अधिक प्रतिकूल हो रहा है। मोह मुझे अधिक बाधित कर रहा है।
२२३९. मूलतिमिच्छं न कुणह, न हु तण्डा छिज्जए विणा तोयं । अम्हे वि वेयणाओ स्वहया एआ न वि पसंतो । साध्वी कहती है-आप मूल चिकित्सा नहीं कर रहे हैं। पानी के बिना प्यास नहीं मिटती। हमने भी तपस्या आदि की वेदनाओं का सहन किया है फिर भी मोह उपशांत नहीं हुआ है।
२२४०. मोहम्मआहइनिभाहि ईय वायाहिं अहियवायाहिं। धतं पि धिइसमत्था, चलति किमु दुब्बलधिईया ॥ इस प्रकार की वाणी मोहरूपी अग्नि में आहुतितुल्य होती हे वह अत्यधिक अहितकर अर्थात् नरक में ले जाने वाली होती है । अत्यंत धृतिसंपन्न व्यक्ति भी चलित हो जाते हैं तो दुर्बल धृति वाले व्यक्तियों का तो कहना ही क्या ! २२४१.सपडिदुवारे उवस्सए, निग्गंथीणं न कप्पई वासो ।
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वण एक्कमेवं, चरत्तभासुंडा सज्जो ॥ यदि साध्वियों के उपाश्रय का द्वार अभिमुखद्वार वाला हो तो वहां साधुओं को रहना नहीं कल्पता। क्योंकि एकदूसरे को देखने से शीघ्र ही चारित्र की भ्रंशना होती है। २२४२. धम्मम्मि पवाया, निंता दठ्ठे परोप्परं वो वि लज्जा विसंति निंति य, संका य निरिक्खणे अहियं ॥ ग्रीष्म ऋतु में गर्मी से पीड़ित होकर मुनि वायु के निमित्त बाहर जाता है और साध्वी भी इसी निमित्त से बाहर निकलती है। दोनों परस्पर एक-दूसरे को देखकर, लज्जावश दोनों भीतर चले जाते हैं। फिर दोनों बाहर आते हैं फिर भीतर चले जाते हैं। इस प्रकार दो-तीन बार करने से शंका होती है तथा एक दृष्टि से देखने पर अत्यधिक शंका होती है।
१. चरिता चारित्रशना सयो भवति (चूर्ण)
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बृहत्कल्पभाष्यम् २२४३. बीसत्थऽवाउडऽनन्नदंसणे होइ लज्जबोच्छेदी। ते चेव तत्थ तत्थ दोसा आलाबुल्लावमादीया ॥ अभिमुखद्वारवाले उपाश्रय में साधु-साध्वी विश्वस्त होकर कदाचित् निर्वस्व हो जाते हैं एक-दूसरे को देखने पर लज्जा का व्यवच्छेद हो जाता है। फिर आलाप उल्लाप आदि होने लगता है। ये दोष उत्पन्न होते हैं। २२४४. एमेव व एकतरे, ठियाण पासम्मि मग्गओ वा वि
बहुअंतर एगनिवेसणे व दोसा उ पुब्बुत्ता ॥ इसी प्रकार साध्वी के प्रतिश्रय के पास या पीछे वृत्ति से अंतरित तथा एक निवेशन में दोनों के लिए पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं।
२२४५. उच्चे नीए व ठिआ, बद्रृण परोप्परं दुवग्गा वि
संका व सईकरणं, चरित्तभासुंडणा चयई । ऊंचे, नीचे था स्थान में स्थित यदि दोनों वर्ग हों तो एक दूसरे को देखने पर शंका होती है, पूर्वभुक्त भोगों की स्मृति आती है, चारित्र का नाश होता है अथवा सर्वथा संयम से च्युत हो जाता है।
२२४६. माले सभावओ वा, उच्चम्मि ठिओ निरिक्खई हेदूं । बेट्टो व निवन्नो वा, तत्थ इमं होइ पच्छित्तं ॥ कदाचित् मुनि वसति के ऊपर के माले (भाग) में स्थित हो, या स्वभावतः ऊंचे देवकुल आदि में स्थित हो और साध्वियां नीचे रहती हो और वह मुनि बैठे-बैठे या खड़े-खड़े नीचे साध्वी को देखता हो तो यह प्रायश्चित्त आता है। २२४७. संतर निरंतरं वा निरिक्खमाणे सई पकामं वा ।
काल तवेहिं विसिद्धो भिन्नो मासो तुयट्टम्मि ॥ मुनि नीचे स्थित साध्वी को सांतर - किसी सहारे से ऊंचा होकर देखता है या निरंतर स्वभावतः उसे देखता है, या सोते-सोते एक बार देखता है या बार-बार देखता है तो काल और तप से विशेषित भिन्नमास का प्रायश्चित आता है। २२४८. एसेब गुरु निविट्टे, द्वियम्मि मासो लहू उ भिक्स्स्स एक्वेक्क ठाण वुड्डी, चउगुरुअंतं च आयरिए ॥ यदि बैठा-बैठा निरंतर या सांतर देखता है तो वही भिन्नमास का प्रायश्चित्त, तप और काल से गुरु, का आता है और खड़े-खड़े देखता है तो वही प्रायश्चित्त तप और काल से लघु होता है। इसी प्रकार वृषभ, उपाध्याय और आचार्य के यथाक्रम एक-एक स्थान की वृद्धि करनी चाहिए। आचार्य के चतुर्गुरुक जैसे वृषभ के गुरुभिन्नमाष से प्रारब्ध गुरुमास, उपाध्याय के मासलघुक से प्रारब्ध चतुर्लघुक और
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