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पहला उद्देशक
२२२६.निग्गंधं न वि वायइ, अलाहि किं वा वि तेण भणिएणं।
छाएउं च पभायं, न वि सक्का पडसएणावि॥ बिना कुछ हए बात नहीं फैलती। वायु में गंध है तो अवश्य ही उसका कारण है। निर्गंध वायु नहीं चलती। (अतः आपका इस व्रतिनी के प्रति जो पक्षपात है, वह असंबंध में नहीं हो सकता।) अथवा आप और अधिक न कहें। उस प्रकार का वचन कहने से क्या प्रयोजन? प्रभात को सैंकड़ों पटों से भी आच्छादित नहीं किया जा सकता। (इसी प्रकार उसके द्वारा लगाया गया झूठा आरोप जल में गिरे तैल बिन्दु की भांति सर्वत्र प्रसरणशील होकर आचार्य के प्रभाव को दूषित करता है।) २२२७.मन्झत्थं अच्छतं, सीहं गंतूण जो विबोहेइ।
अप्पवहाए होई, वेयालो चेव दुज्जुत्तो॥ जैसे-उदासीन बैठे हुए सिंह के पास जाकर कोई उसको जगाता है तो वह सिंह उसी को मार डालता है। अथवा दुष्प्रयुक्त वैताल साधक को ही मार डालता है, इसी प्रकार यह वर्तिनी भी निवारित किए जाने पर आचार्य के प्रभाव की घात करने वाली होती है। २२२८.उप्पन्ने अहिगरणे, गणहारि पवत्तिणिं निवारेइ। ___अह तत्थ न वारेई, चाउम्मासा भवे गुरुगा॥
इसलिए अधिकरण के उत्पन्न होने पर गणधारी या प्रवर्तिनी निवारण करती है। यदि गणधारी निवारण नहीं करते हैं तो चतुर्गुरुक मास का प्रायश्चित्त आता है। २२२९.पाहुन्नं ताणं कयं, असंखडं देह तो अलज्जाओ।
पुवट्ठिय इय अज्जा, उवालभंताऽणुसासंति॥ आगंतुक आर्यिकाओं का अच्छा आतिथ्य किया कि वे बेशर्म होकर इस प्रकार कलह करती हैं। पूर्वस्थित आचार्य (वास्तव्य आचार्य) अपनी आर्यायों को उपालंभ देते हुए, इस प्रकार अनुशासित करते हैं। २२३०.एगं तासिं खेत्तं, मलेह बिइयं असंखडं देह।
आगंतू इय दोसं, झवंति तिक्खाइ-महुरेहिं।। आगंतुक संयतियों के उपशमन का यह अन्य उपाय है-आचार्य कहते हैं-यह क्षेत्र वास्तव्य साध्वियों का है। इसका विनाश कर रहे हैं। दूसरी बात है कि इनके साथ कलह भी कर रहे हैं। आगंतुक आचार्य अधिकरण उत्पन्न करने वाले इन दोषों को तीक्ष्ण और मधुरवचनों से उपशांत कर देते हैं। २२३१.अवराह तुलेऊणं, पुव्ववरद्धं च गणधरा मिलिया।
__बोहित्तुमसागारिए दिति विसोहिं खमावेउं॥ दोनों गणधर मिलकर अपराध को तोलते हैं। जितना
= २२७ जिसका अपराध है उसको परस्पर के संवाद से निश्चित कर, पहले किसने अपराध किया, उस साध्वी को एकांत में प्रतिबोध देकर दूसरी साध्वी से क्षमायाचना करानी चाहिए। दोनों के परस्पर क्षमायाचना हो जाने पर विशोधि-प्रायश्चित्त देना चाहिए। २२३२.अभिनिदुवार(ऽभि)निक्खमणपवेसे एगवगडि ते चेव।
जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ।। एक गांव है। उसमें प्रवेश और अभिनिष्क्रमण के अनेक द्वार हैं परन्तु एक वगड-परकोटा वाला है। यहां रहने से जो दोष होते हैं, वे प्रथम भंग में कहे जा चुके हैं। उनमें जो नानात्व-विशेष है, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। २२३३.तह चेव अन्नहा वा, वि आगया ठंति संजईखेत्ते।
भोइयनाए भयणा, सेसं तं चेविमं चऽन्नं ॥ तथैव अर्थात् गाथा २१३४ के अनुसार अथवा अन्यथा संयती के क्षेत्र में आकर संत ठहर जाते हैं। उनके साथ भोजिक के उदाहरण की भजना है। शेष प्रायश्चित्त आदि प्रथम भंगोक्त के अनुसार ही है। यह अन्य है। २२३४.एगा व होज्ज साही, दाराणि व होज्ज सपडिहुत्ताणि।
पासे व मग्गओ वा, उच्चे नीए व धम्मकहा।। अनेक द्वार तथा एक वगडे वाले गांव में साधु-साध्वियों के प्रतिश्रय के एक ही सही-गृहपंक्ति हो। द्वार एक दूसरे के अभिमुख हो। साध्वियों के प्रतिश्रय के पास में, पीछे, ऊंचे, नीचे स्थान में साधु स्थित हों और कोई धर्मकथा करता हो-यह इस नियुक्ति गाथा का संक्षेपार्थ है। विस्तार
२२३५.वइअंतरियाणं खलु,दोण्ह वि वग्गाण गरहिओ वासो।
आलावे संलावे, चरित्तसंभेइणी विकहा॥ वृत्ति द्वारा अंतरित स्थान में भी साधु-साध्वियों-दोनों वर्गों का एकत्र वास गर्हित है। उनका परस्पर आलाप, संलाप होने पर चारित्रसंभेदिनी विकथा हो सकती है। २२३६.उभयेगयरट्ठाए, व निग्गया दट्ट एक्कमेक्वं तु।
संका निरोहमादी, पबंध आतोभया वाऽऽसु॥ दोनों प्रकार की कायिकी संज्ञा में से किसी एक संज्ञा की निवृत्ति के लिए साधु-साध्वी बाहर निर्गमन करते हैं। वहां परस्पर एक-दूसरे को देखकर शंका होती है। निरोध आदि भी हो सकता है। कथा-प्रबंध भी हो सकता है। उससे आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ दोनों प्रकार के दोष होते हैं और उनसे शीघ्र ही संयमविराधना होती है। २२३७. पस्सामि ताव छिद्द, वन्न पमाणं व ताव से दच्छं।
इति छिड्डेहि कुमारा, झायंती कोउहल्लेणं॥
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