SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीठिका लेप-लिप्त पात्र पर छानी हुई साफ भस्म लगाए, फिर जागरूक रहे। यदि ग्लान आदि के प्रयोजन से कहीं जाना पड़े सघन वस्त्र से बांधकर उसको आतप में रखे। वहां पात्र का तो दूसरे मुनि को उस कार्य में व्याप्त करे, स्वयं वहीं पात्र उद्वर्तन-परिवर्तन तब तक करे जब तक कि पात्र सूख न की रक्षा करता हुआ रहे। जाए। फिर पात्र को निकाल कर पानी से धोए और पुनः लेप ५२३. एक्को य जहन्नेणं, बिय तिय चत्तारि पंच उक्कोसा। लगाए। ___ संजमहेउं लेवो, वज्जित्ता गारव विभूसं।। ५१८. काउं सरयत्ताणं, पत्ताबंधं अबंधगं कुज्जा। पात्र के जघन्यतः एक लेप अवश्य लगाए और उत्कृष्टतः साणाइरक्खणट्ठा, पमज्ज छाउण्हसंकमणा॥ दो, तीन, चार, पांच लेप लगाए। लेप केवल संयम निर्वाह के पात्र पर पुनः लेप लगाकर उस पर रजस्वाण बिना गांठ लिए लगाए। स्वयं के गौरव या विभूषा के लिए वैसा न करे। दिए बांधे, जिससे कुत्ते आदि से उसकी रक्षा की जा सके। ५२४. अणवट्ठते तह वि उ, सव्वं अवणेत्तु तो पुणो लिंपे। गांठ देने पर कुत्ते आदि उस बंधे पात्र को घसीट कर ले जा तज्जाय सचोप्पडयं, घट्ट रएउं ततो धोवे॥ सकते हैं। छाया और आतप में प्रमार्जन कर उस पात्र को ___ चार-पांच लेप लगाने पर भी यदि लेप पात्र पर नहीं स्थापित कर दे। ठहरते, पात्र के साथ एकीभूत नहीं होते हों तो सारे लेप ५१९. तद्दिवसं पडिलेहा, कुंभमुहादीण होइ कायव्वा।। उतार कर पुनः पात्र पर नए सिरे से लेप लगाए। अलाबु आदि छण्णे य निसिं कुज्जा, कयकज्जाणं विवेगो उ॥ का पात्र सस्नेह होता है, तैल आदि से चुपड़ा हुआ होता है, जिस दिन पात्र-लेपन किया हो उस दिन कुंभमुख अर्थात् __ उस पर प्रभूत धूलिकण लग जाते हैं, उनको घट्टकपाषाण से घट के खंड आदि लाए और रात्री में आवृत स्थान में उन निकाल कर, उसी लेप से पुनः उस पात्र को लिस करे और घट-खंडों के ऊपर उन लिस पात्रों को रखे और कार्य पूरा तदनन्तर उसको धोए। यह 'तज्जातलेप' कहलाता है। होने पर उन खंडों का परिष्ठापन कर दे। ५२५. तज्जाय-जुत्तिलेवो, दुचक्कलेवो य होइ नायव्वो। ५२०. अट्टगहेउं लेवाहिगं तु सेसं सख्यगं पीसे। मुद्दियनावाबंधो, तेणगबंधो य पडिकुट्ठो। __ अहवा वि न दायव्वो, सरूयगं छारे तो उज्झे। लेप के अनेक प्रकार हैं-तज्जातलेप, युक्तिलेप और शेष में बचा हुआ जो अधिक लेप हो उसको अट्टक द्विचक्रलेप। द्विचक्रलेप का अर्थ है-शकटलेप। यदि इस लेप अर्थात् पात्र के ऊपरी किनारों आदि के लेप के लिए रूई में से लिंपित पात्र टूट जाए तो उस पर मुद्रित नौ बंधन बांधे। डालकर रख ले। अथवा पात्र के अट्टक न लगाना हो तो यही बंध अनुज्ञात है। स्तेनक बंध का प्रतिषेध है। उसको राख में डाल कर परिष्ठापन कर दे। ५२६. जुत्ती उ पत्थरायी, पडिकुट्ठा सा उ सन्निही काउं। ५२१. पढम-चरिमाउ सिसिरे, गिम्हे अद्धं तु तासि वज्जित्ता। दय सुकुमाल असन्निहि, दुचक्कलेवो अतो इट्ठो।। पायं ठवे सिणेहादिरक्खणट्ठा पवेसे वा। युक्तिलेप प्रस्तर आदि से बनाया जाता है। 'युक्ति' की शिशिर अर्थात् शीतकाल में प्रथम और अंतिम पौरुषी को सन्निधि होती है, इसलिए वह प्रतिषिद्ध है। तज्जातलेप की छोड़कर तथा ग्रीष्म ऋतु में प्रथम और अंतिम पौरुषी के प्राप्ति भी कदाचित् होती है। इन लेपों में द्विचक्रलेपआधे-आधे काल-विभाग का वर्जन कर उनके मध्यभाग में शकटलेप सुकुमाल होता है, वह इष्ट है। उसकी सन्निधि स्नेह (अवश्याय) आदि से रक्षा के लिए पात्र को आतप में नहीं होती। उससे दया का पालन सहज हो जाता है क्योंकि उसमें प्राणी स्पष्ट परिलक्षित हो जाते हैं। ५२२. उवयोगं च अभिक्खं, करेति वासादि-साणरक्खट्ठा। ५२७. संजमहेउं लेवो, न विभूसाए वयंति तित्थयरा। वावारेति व अण्णे, गिलाणमादीसु कज्जेसु॥ सति-असतीदिढतो, विभूसाए होति चउगुरुगा। पात्र को आतप में रखकर उसकी वर्षा आदि से तथा तीर्थंकर यह कहते हैं कि पात्र पर लेप लगाने का मुख्य कुक्कुर आदि से रक्षा के निमित्त अनवरत उपयोग रखे, हेतु है संयम। विभूषा और गौरव के लिए लेप लगाना निषिद्ध १. इस गाथा का तात्पर्यार्थ यह है-शिशिरकाल में प्रथम पौरुषी के बीत जाने पर पात्र को आतप में रखे और अंतिम प्रहर में, जब तक वह प्रारंभ न हो, उससे पूर्व मध्यकाल में पात्र को आतप में रखे। क्योंकि शिशिर में काल की स्निग्धता के कारण प्रथम और चरम प्रहर में अवश्याय आदि के गिरने से लेप का विनाश हो जाता है। उष्णकाल में प्रथम प्रहर आधा बीत जाने पर पात्र को आतप में रखे और चरम प्रहर में अंतिम आधा प्रहर आने से पूर्व पात्र को आतप में रखे। काल की रूक्षता के कारण उसके पश्चात् अवश्याय आदि गिरने की संभावना रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy