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________________ नीचे स्थित कुत्ता मुनि को काट डालता है। वहां आत्मोपधात होता है। कुत्ता उस लेप को चाटता है तो प्रवचनोपघात होता है। भय से त्रस्त होकर कुत्ता दौड़ता है तो पृथ्वीकायिक आदि जीवों का विनाश होता है। यह संयमोपघात है। ५०६. जो चेव य हरिएसुं, सो चेव गमो उ उदग पुढवीए। ___ संपइमा तसगणा, सामाए होइ चउभंगो॥ जो गम-विकल्प पहले हरित के लिए कहे हैं, वे ही विकल्प उदक और पृथिवी संबंधी जानने चाहिए। संपातिम वस प्राणी यदि गिर रहे हों तो लेपग्रहण नहीं करना चाहिए। रात्री से संबंधित चतुर्भंगी होती है। १. रात्री में लेप लिया, रात्री में ही पात्र के लेप लगाया। २. रात्री में लेप लिया, दिन में पात्र के लेप लगाना। ३. दिन में लेप लिया, रात्रि में पात्र के लेप लगाना। ४. दिन में लेप लिया और दिन में पात्र के लेप लगाया। ५०७. वायम्मि वायमाणे, महियाए चेव पवडमाणीए। नाणुण्णायं गहणं, अमियस्स य मा विगिंचणया॥ महावायु के चलते समय अथवा गिरती हुई महिका में लेपग्रहण अनुज्ञात नहीं है। तथा अमित लेपग्रहण भी अनुज्ञात नहीं है, क्योंकि उसका परिष्ठापन न करना पड़े। ५०८. चल-जुत्त-वच्छ-महिया-तसेसु सामाएँ चेव चतुलहुगा। दव्वचल साण गुरुगा, मासो लहओ उ अमियम्मि॥ यह गाथा प्रायश्चित निर्देशिका है भावतः चल शकट, बलिवर्दयुक्त शकट, वत्स बंधा हुआ हो, महिका तथा संपातिम त्रस गिर रहे हों, रात्री में-इन स्थितियों में लेपग्रहण करने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त हे-चार लघुमास। द्रव्यतः चल आदि तथा शकट के नीचे कुत्ते की स्थिति होने पर-चार गुरुमास का तथा अमित लेप के ग्रहण में एक लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। ५०९. एतद्दोसविमुक्त, घेत्तुं छारेण अक्कमित्ताणं। चीरेण बंधिऊणं, गुरुमूल पडिक्कमाऽऽलोए। उपरोक्त सभी दोषों से मुक्त लेप को ग्रहण कर, उसमें क्षार-भस्म मिलाकर, कपड़े में बांधकर, गुरु के पास आए और ईर्यापथिकी कर आलोचना करे। ५१०. दंसिय छंदिय गुरु सेसए य ओमत्थियस्स भाणस्स। काउं चीरं उवरि, रूयं च छुभेज्ज तो लेवं॥ गुरु को लेप दिखाकर, लेप-ग्रहण के लिए गुरु को निमंत्रित करे और फिर शेष साधुओं को भी निमंत्रण दे। जिस मुनि को जितना चाहिए, उसको उतना देकर एक अवाङ्गखीकृत भाजन के ऊपर कपड़ा लगाकर लेप और रूई उसमें प्रक्षिप्त करे। =बृहत्कल्पभाष्यम् ५११. अंगुट्ठ-पएसिणि-मज्झिमाहि घेत्तुं घणं ततो चीरं। आलिंपिऊण भाणं, एक्वं दो तिन्नि वा घट्टे॥ लेप कैसे लगाए ? अंगूठे के साथ प्रदेशिनी और मध्यमा अंगुली से लेप निकाल कर, सघन कपड़े में उसे डालकर उसको निचोड़े। इस प्रकार एक-एक पात्र को दो-तीन बार लेप लगाए। फिर घट्टण-पाषाण से उसे रगड़े। ५१२. अण्णोण्णे अंकम्मी, अण्णं घट्टेति वारवारेण। आणेइ तमेव दिणे, दवं रएउं अभत्तट्ठी। एक-एक भाजन को घट्टित कर उनको एक ओर रखकर, अपनी-अपनी बारी से उनको बार-बार रगड़े। अभी लेप सूखा न हो और द्रव-पानी लाने का प्रयोजन उपस्थित हो जाए तो वह अभक्तार्थी मुनि उसी दिन लेप लगाकर उसमें पानी ले आए। ५१३. अभतट्ठीणं दाउं, अण्णेसिं वा अहिंडमाणाणं। हिंडेज्ज असंथरणे, असती घेत्तुं अरइयं तु॥ पात्र का लेप अभी तक सूखा नहीं है और वह मुनि भक्तार्थी है। भोजन किए बिना वह रह नहीं सकता तब अभक्तार्थियों अथवा गोचरी के लिए न जाने वालों को वह आर्द्रपात्र सौंपकर भिक्षा के लिए जाए। यदि अभक्तार्थी अथवा गोचरी के लिए न जाने वालों का अभाव हो तो वह मुनि उस अरंजित अपरिणतवाले पात्र को लेकर जाए। ५१४. न तरिज्जा जति तिण्णि उ, हिंडावेउं ततो णु छारेण। ओयत्तेउं हिंडइ, अन्ने व दवं से गिण्हति।। यदि तीनों पात्रों को लेकर गोचरी में न घूम सके तो उस पात्र को उपाश्रय में ही राख से लिप्स कर साथ में ले जाए। कोई अन्य उसके प्रयोजनीय द्रव पदार्थ ले ले तो वह उस पात्र को रिक्त ही ले आए। ५१५.लित्थारियाणि जाणि उ, घट्टगमादीणि तत्थ लेवेण। संजमभूतिनिमित्तं, ताई भूईएँ लिंपिज्जा॥ लेपों से जितने पात्र खरंटित किये जा चुके हैं, उन पात्रों को संयम की विभूति के लिए क्षार-राख से लिंपित करे जिससे उस लेप के स्पर्श से त्रस-स्थावर जीवों का विनाश न हों। ५१६. एवं लेवग्गणं आणयणं लिंपणाय जयणा य। भणियाणि अतो वोच्छं, परिकम्मविहिं तु लित्तस्स। इस प्रकार लेप का ग्रहण, आनयन और पात्र के लेपन संबंधी यतना कही गई है। आगे लेप-लिप्त पात्र की परिकर्मविधि कहूंगा। ५१७. लित्ते छाणिय छारो, धणेण चीरेण बंधिउं उण्हे। उव्वत्तण परियत्तण, अंछिय धोए पुणो लेवो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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