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=बृहत्कल्पभाष्यम् है। जो विभूषा आदि के लिए पात्र पर लेप लगाता है, उसका हो, उसको भेजने पर चार लघुमास (तप और काल-दोनों से प्रायश्चित्त है-चार गुरुकमास। यहां सती और असती का लघु) का प्रायश्चित्त विहित है। दृष्टांत है। वह इस प्रकार है-सती अपने कुलाचार के निमित्त ५३२. पढिए य कहिय अहिगय, परिहरती पिंडकप्पितो एसो। विभूषा करती है वह युक्त है। असती भी अपनी विभूषा करती तिविहं तीहिं विसुद्धं, परिहरनवगेण भेदेणं ।। है, परन्तु वह विभूषा जार को प्रसन्न करने के लिए होती है। जिसके पिंडैषणा अध्ययन पठित है, अर्थ कथित अर्थात् वह अयुक्त है, सदोष है।
ज्ञात है, अधिगत है, वह त्रिविध अर्थात् उद्गमशुद्ध, ५२८. भिज्जिज्ज लिप्पमाणं, लित्तं वा असइए पुणो बंधे।। उत्पादनशुद्ध तथा एषणाशुद्ध, मन, वचन और काया से
मुद्दियनावाबंधे, न तेणबंधेण बंधेज्जा॥ विशुद्ध परिहरणीय को नवक भेदों से परिहार करता है, वह यदि लेप लगाते समय अथवा लेप लिप्त पात्र टूट जाए, पिंडकल्पिक होता है। और दूसरा पात्र न हो तो उसे मुद्रितनौबंध से बांधे। स्तेनक- ५३३. गुरुगा अहे य चरिमतिग मीस बायर सपच्चवायहडे। बंधन से न बांधे।
कड पूइए य गुरुगो, अज्झोयरए य चरमदुगे। ५२९. खर अयसि-कुसुंभ सरिसव, कमेण उक्कोस मज्झिम जहन्नो। उद्गम के सोलह दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान
नवणीए सप्पि बसा, गुले य लोणे अलेवो उ॥ यह गाथा अत्यंत संक्षिप्त है। टीका के अनुसार इसका विस्तृत स्वरसंज्ञक अर्थात् तिलों के तैल से निष्पन्न लेप उत्कृष्ट अर्थ इस प्रकार हैहोता है, अतसी और कुसुंभ तैल से निष्पन्न लेप मध्यम और आधाकर्म आहार आदि लेने पर उसका प्रायश्चित्त है चार सर्षप तैल से निष्पन्न लेप जघन्य होता है। नवनीत, घृत और गुरुक। औद्देशिक के दो प्रकार हैं-ओघ और विभाग। विभाग चर्बी से निष्पन्न लेप अलेप होता है। गुड़ अथवा लवण से भृत औद्देशिक के बारह भेद हैं-उद्दिष्ट, कृत और कर्म। इन तीनों शकटों के चक्के यदि तिलों के तैल से मेक्षित हों तो भी वह के चार-चार प्रकार हैं। जैसे-उद्दिष्ट के चार प्रकार--- लेप अलेप ही है, क्योंकि वह लवणावयवयोग से अप्रशस्त औद्देशिक, समुद्देशिक, आदेशिक और समादेशिक। कृत के होता है।
चार भेद हैं-उद्देशकृत, समुद्देशकृत, ओदशकृत और ५३०. पढिय सुय गुणियमगुणिय, धारमधार उवउत्तो परिहरति। समादेशकृत। कर्म के भी चार प्रकार हैं-उद्देशकर्म,
आलोयायरियादी, आयरिओ विसोहिकारो से॥ समुद्देशकर्म, आदेशकर्म, समादेशकर्म। ये कुल ४४३-बारह जिसने ओघनियुक्ति अथवा इस कल्प-पीठिका को पढ़ा प्रकार के हैं। है, अथवा सुना है अथवा गुणित-अभ्यास किया है अथवा जो सभी भिक्षाचरों के लिए बनाया जाता है वह अगुणित है, धारित है अथवा अधारित है, फिर भी उपयुक्त उद्देशिक, जो अन्यतीर्थिकों के लिए बनाया जाता है वह होकर लेप का परिभोग करता है, वह लेपकल्पिक है। उसके समुद्देशिक, जो श्रमणों के लिए हो वह आदेशिक और जो इस विषयक कोई विराधना होती है तो वह आचार्य आदि से। निग्रंथों के लिए हो वह समादेशिक होता है। आलोचना करे। आचार्य उसके विशोधिकारक होते हैं।
विभागोद्देशिक के चरमत्रिक-समुद्देशकर्म, आदेशकर्म और ५३१. अप्पत्ते अकहित्ता, अणहिगयऽपरिच्छणे य चउगुरुगा।। समादेशकर्म लेने पर प्रत्येक के लिए प्रायश्चित्त है-तप और
दोहिं गुरू तवगुरुगा, कालगुरू दोहि वी लहुगा॥ काल से विशेषित चार गुरुक। जिसने आचारचूलागत पिंडैषणा अध्ययन अथवा मिश्रजात के तीन भेद हैं-यावंतिकमिश्र, पाषंडिकमिश्र, दशवैकालिकगत पिंडैषणा अध्ययन को नहीं पढ़ा है, उसको स्वगृहमिश्र। इनमें अंतिम दो के ग्रहण पर प्रत्येक प्रायश्चित्त गोचरी भेजने पर दो से गुरु अर्थात् तप से गुरु तथा काल से है-तप और काल से गुरु चार गुरुक। गुरु चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। उस अध्ययन का प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-सूक्ष्म और बादर। बादर अर्थ बताए बिना भेजने पर चार लघुमास (काल से लघु), प्राभृतिका ग्रहण करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। अर्थ कथित है, परन्तु अनधिगत है अथवा अधिगत होने पर सप्रत्यपाय आहृत में चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। भी उस पर श्रद्धा नहीं है तो चार लघुमास (तप से लघु), चारों प्रकार के कृत उद्देशकों में प्रत्येक के मासगुरुक अधिगत अर्थ वाला होने पर भी जिसकी परीक्षा नहीं की गई प्रायश्चित्त है जो तप और काल से विशेषित होता है। १. यहां वृत्तिकार ने संपूर्ण पिंडनियुक्ति की ओर संकेत किया है-'अत्र पिण्डनियुक्तिः सर्वा वक्तव्या'। सा च ग्रन्थान्तरत्वात् स्वस्थाने एव स्थिता 'प्रतिपत्तव्या। (वृ. पृ. १५४)
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