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पीठिका
भाव पूतिक के दो भेद हैं सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म का काई प्रायश्चित्त नहीं है। बादर पूतिक जो भक्तपान विषयक होता है उसके लिए मासगुरु तथा अध्यवपूरक के तीन में से अंतिम दो भेदों (यावन्तिक अध्यवपूरक, पाषंड अध्यवपूरक तथा स्वगृह अध्यवपूरक) प्रत्येक का मासगुरु प्रायश्चित्त है। ५३४. ओह-विभागुद्देसे, चिरठविए पागडे य उवगरणे।
लोगुत्तर पामिच्चे, परियट्टिय कीय परभावे॥ ५३५. सग्गामभिहडि गंठी, जहन्न जावंति ओयरे लहुओ।
इत्तरठविए सुहुमा, पणगं लहुगा य सेसेसु॥
ओघऔदेशिक, विभागऔद्देशिक, चिरस्थापित, प्रकटकरण, उपकरणपूतिक, प्रामित्य, परिवर्तित, क्रीत, परभाव- क्रीत, स्वग्राम अभ्याहृत, ग्रंथि उद्भिन्न, जघन्य मालापहृत तथा यावंतिक अध्यवपूरक-इन सब में मासलघु का प्रायश्चित्त विहित है।
इत्वर स्थापित, सूक्ष्म प्राभृतिका-इनमें पांच रात-दिन का प्रायश्चित्त है। जो शेष उद्गम दोष हैं, उनमें प्रत्येक के चार लघुक का प्रायश्चित्त कथित है। ५३६. दुविह निमित्ते लोभे, गुरुगा मायाएँ मासियं गुरुयं।
सुहुमे वयणे लहुओ, सेसे लहुगा य मूलं च॥ उत्पादन दोष संबंधी प्रायश्चित्त
निमित्त तीन प्रकार का होता है-अतीतविषयक, वर्तमानविषयक और अनागतविषयक। इनमें वर्तमानविषयक तथा अनागतविषयक निमित्त तथा लोभ-प्रत्येक के चार-चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। माया में मासलघु तथा सूक्ष्मचैकिल्स्य और वचनसंशय-प्रत्येक में लघुकमास का प्रायश्चित्त है। शेष सभी उत्पादन दोषों में प्रत्येक के लिए चार-चार लघु और मूलकर्म में मूल प्रायश्चित्त विहित है। ५३७. ससरक्खे ससिणिद्धे, पणगं लहुगा दुगुंछ संसत्ते।
उक्कुट्टऽणते गुरुगो, सेसे सव्वेसु मासलहू। एषणा दोष संबंधी प्रायश्चित्त
सरजस्क तथा सस्निग्ध हाथ या पात्र से भिक्षा लेने पर पांच रात-दिन का, जुगुप्सित अचित्त पदार्थ (मल, मूल, मदिरा आदि) से तथा प्राणियों से संसक्त हाथ-पात्र से भिक्षा लेने पर चार लघुक का, उत्कुट्टित अनन्तकायिक वनस्पति से स्पष्ट लेने पर मासगुरु का तथा शेष सभी एषणाओं में मासलघु प्रायश्चित्त है। ५३८. चउलहुगा चउगुरुगा, मासो लहु गुरु य पणग लहु गुरुगं।।
छसु परितऽणंत मीसे, बीए य अणंतर परे य॥ निक्षिप्त संबंधी प्रायश्चित्त
परित्त सचित्त पर अनन्तरप्रतिष्ठित अथवा परंपरप्रतिष्ठित से लेने से चार लघु तथा अनन्त सचित्त पर अनन्तर या परंपरप्रतिष्ठित से लेने से चार गुरु, परित्तमिश्र या अनन्तमिश्र पर प्रतिष्ठित होने से लेने पर क्रमशः मासलघु और मासगुरु का प्रायश्चित्त है। परित्त बीजों पर प्रतिष्ठित से लेने पर पांच रात-दिन लघु तथा अनन्तकाय बीजों पर प्रतिष्ठित से लेने पर गुरु पांच रात-दिन, त्रसकाय पर अनन्तर प्रतिष्ठित से लेने पर चार लघुक और परंपरप्रतिष्ठित से लेने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। इस प्रकार छह जीवनिकायों में परित्त, अनन्त, मिश्र पृथिवी आदि में तथा बीज के परित्त, अनन्त तथा मिश्र तथा परंपर अथवा अनन्तर प्रतिष्ठित इन सब विकल्पों में जो भिक्षा लेता है वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। ५३९. एमेव य पिहियम्मी, लहगा दव्वम्मि चेव अपरिणए।
वीसुम्मीसे पणगं, अणंतबीए य पणग गुरू॥ इसी प्रकार पिहित के विषय में प्रायश्चित्त विधान जानना चाहिए। पात्र में कुछ प्रक्षिप्त है, उस अपरिणत द्रव्य का संहरण कर देता है तो चार लघुक का प्रायश्चित्त आता है। परित्त बीजों से उन्मिश्र हो तो पांच रात-दिन लघु और अनंत बीजोन्मिन होने पर पांच रात-दिन गुरु का प्रायश्चित्त है। ५४०. संजोग सइंगाले, अणंतमीसे वि चउगुरू होति।
वीसुम्मीसे मासो, सेसे लघुका उ सव्वेसु॥ संयोजना के दो प्रकार हैं-अन्तर् और बहिर्। अन्तर संयोजना के चार लघुक और बहिर् संयोजना के चार गुरुक। सइंगाल में चार गुरु और सधूम में चार लघु। अनन्तमिश्र होने पर चार गुरुक। विष्वगुन्मिश्र में लघुक तथा गुरुकमास। शेष सभी में चार लघुक। ५४१. दुविहा हवंति सेज्जा, दव्वे भावे य दव्व खायाती।
साहूहिं परिग्गहिया, ते च्चेव उ भावओ सेज्जा। शय्या (वसति) के दो प्रकार हैं-द्रव्य और भाव। द्रव्य शय्या है-खात आदि। यही शय्या साधुओं द्वारा परिगृहीत होने पर भावशय्या होती है। ५४२. रक्खण गहणे तु तहा, सेज्जाकप्पो उ होइ दुविहो उ।
सुन्ने बाल गिलाणे, अव्वत्ताऽऽरोवणा भणिया॥ शय्याकल्प दो प्रकार का है-रक्षण और ग्रहण। वसति की रक्षा करनी चाहिए। वसति को शून्य कर देते हैं अथवा बाल, ग्लान या अव्यक्त को उसकी रक्षा सौंपते हैं तो आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। ५४३. पढमम्मि य चउलहुया, सेसेसुं मासियं मुणेयव्वं ।
दोहि गुरू इक्केणं, चउथपए दोहि वी लहुयं ।।
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