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________________ ६० प्रथम अर्थात् वसति को शून्य करने पर चार लघुक का आरोपणा प्रायश्चित्त विहित है। यह तप और काल- दोनों से गुरु होता है। बालक को स्थापित करने पर मासलघु की आरोपणा जो तपोगुरु और काललघु होती है। ग्लान को स्थापित करने पर मासलघु की आरोपणा जो तपोलघु और कालगुरु होती है। चतुर्थ पद अर्थात् अव्यक्त को स्थापित करने पर मासलघु की आरोपणा जो दोनों तप और काल से लघु होती है। ५४४. मिच्छत्त बडुग चारण, भडाण मरणं तिरिक्ख- मणुयाणं । आवेस बाल निक्केयणे य सुन्ने भवे दोसा ॥ वसति को शून्य छोड़ने से ये दोष होते हैं-मिथ्यात्वगमन, बटुक, चारण और भट का प्रवेश, पशु और मनुष्य का मरण, प्राचूर्णक और व्याल का प्रवेश, बेघर वाले तिर्यच और स्त्रियों का निष्कासन (इसकी व्याख्या अगली गाथाओं में।) ५४५. सोच्या पत्तिमपत्तिय, अकयन्नु अदक्खिणा दुविह छेदो। भरियभरागमनिच्छुभ गरिहा न लभंति वऽन्नत्थ ॥ ५४६. भेदो य मासकप्पे, जदलंभे विहारादि पावते अन्नं । बहिभुत्त निसागमणे, गरिह विणासा य सविसेसा ॥ शय्यातर ने वसति को शून्य देखकर आसपास के लोगों को पूछ कर जाना कि साधु चले गए हैं। यदि उसके मन में प्रीति रहे तो चार लघुक का आरोपणा प्रायश्चित्त, अप्रीति हो कि ये मुनि अकृतज्ञ और निःस्नेह है तो चार गुरुक का आरोपणा प्रायश्चित्त आता है इस प्रवृत्ति से वो का छेद होता है-स्थान की प्राप्ति और अन्य द्रव्यों की प्राप्ति का व्यवच्छेद हो जाता है। गोचरी से वे मुनि भरे हुए पात्रों के भार से अवनत होते हुए वहां आते हैं तो शय्यातर उनको स्थान नहीं देता। मुनियों की गर्हा होती है और उनको अन्यत्र भी स्थान नहीं मिलता। दूसरे गांव में जाने पर मासकल्प का भेद होता है। अन्य मुनि विहार आदि करते हुए वहां आते हैं और वसतिस्वामी पूर्व मुनियों के दोषों का स्मरण कर उनको स्थान देने से इन्कार हो जाता हे तब उन समागत मुनियों को श्वापद, स्तेन आदि के जो अनर्थ झेलने पड़ते हैं, उनका प्रायश्चित्त भी पूर्व मुनियों को आता है। यदि वे पूर्वस्थित मुनि गोचरी के लिए गए हो और गांव के बाहर आहार आदि कर रात्री में पूर्वस्थित वसति के पास आते हैं, स्थान न मिलने पर विशेष ग होती है। तथा श्वापद आदि से विनाश भी होता है। शय्यातर पहले सम्यग्दृष्टि था, परन्तु भावों की विपरिणति के कारण वह मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। , Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् ५४७. सुनंद बडुगा, उभासिते ठाह जइ गया समणा । आगम पवेसऽसंखड, सागरि दिन्नं ति य दियाणं ।। ५४८. संभिच्चेण व अच्छह, अलियं न करेमऽहं तु अप्पाणं । उड्हुंचग अहिगरणं, उभयपयोसं च निच्छूढा ॥ ५४९. सागरिय - संजयाणं, निच्छूढा तेण - अगणिमाईहिं । जं काहिंति पट्टा, उभयस्स वि ते तमावज्जे ॥ वसति को शून्य देखकर कुछ बटुकों ने शय्यातर के पास जाकर स्थान की याचना की। शय्यातर ने कहा यदि वहां श्रमण न हों तो तुम ठहर जाओ। वे वहां ठहर गए। इतने में ही श्रमण वहां आए और वसति में प्रवेश करने लगे। बटुकों ने उन्हें रोका। परस्पर कलह हो गया। बटुक बोले- शय्यातर ने हमें यह स्थान दिया है। श्रमणों ने भी यही कहा। दोनों शय्यातर के पास गए। शय्यातर ने श्रमणों से कहा- तुम वसति को शून्य कर चले गए, इसलिए मैंने बटुकों को अनुज्ञा दे दी। आप दोनों परस्पर सोच लें। एक ओर आप रहे और दूसरी ओर बटुक रहें। मैं स्वयं को झूठा साबित करना नहीं चाहता। दोनों के साथ रहने से परस्पर उपहास आदि के कारण कलह हो सकता है। दोनों को उस वसति से निष्कासित करने पर दोनों के मन में शय्यातर के प्रति प्रद्वेष हो सकता है। अथवा बटुकों का शय्यातर पर तथा श्रमणों पर प्रद्वेष हो सकता है वे सोच सकते हैं कि इन श्रमणों के कारण हमें निकाला गया है। वे प्रविष्ट होकर स्तेनों के प्रयोग से अथवा अन्नि आदि के प्रयोग से श्रमणों तथा शय्यातर दोनों का अनर्थ करते हैं। इनसे निष्पन्न प्रायश्चित भी संयतों को प्राप्त होता है, जो वसति को शून्य कर चले गए थे। 3 ५५०. एमेव चारण भडे, चारण उहुंचगा उ अहिगतरा । निच्छूढा व पदोसं तेणाऽगणिमाइ जह बड़या ॥ इसी प्रकार चारण और भट संबंधी वे ही दोष हैं चारण बटुकों से भी अधिकतर होते हैं। वे प्रपंचबहुल होते हैं। उनको निष्कासित करने पर प्रद्विष्ट होकर वे बटुकों की भांति शय्यातर और श्रमणों के लिए स्तेन तथा अग्नि आदि के प्रयोग से अनेक अनर्थ उत्पादित कर सकते हैं। ५५१. छणि काउझहो, घाणारिस सुत्तऽवन्न अच्छंते । इति उभयमरणदोसा आएसा आएसा जहा बडुगमाई ॥ वसति को शून्य देखकर कोई पशु अथवा अनाथ पुरुष उसमें घुस सकता है। वहां उसकी अचानक मृत्यु हो जाती है। यदि शव को गृहस्थों से परिष्ठापित करवाते हैं तो छहकाय की विराधना होती है और यदि मुनि स्वयं करते हैं तो प्रवचन का उद्दाह-अवहेलना होती है। यदि मृतक का छर्दन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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