________________
पीठिका =
नहीं होता है तो दुर्गन्ध के कारण नाक में अर्श आदि हो ५५५. साभाविय तन्नीसाए आगया भंडगं अवहरंति। सकते हैं। सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी की हानि होती है। नीणेमि त्ति व बाहिं, जा पविसइ ता हरंतऽन्ने॥ लोगों में अवर्णवाद होता है। लोग कहते हैं-देखो! ये श्मशान ५५६. एमेव कइयवा ते, निच्छूटं तं हरंति से उवहिं। में निवास कर रहे हैं। (क्योंकि शव वहां पड़े हैं।) वसति में बाहिं च तुम अच्छसु, अवणेहवहिं व जा कुणिमो॥ तिर्यंच और मनुष्य के मर जाने पर होने वाले ये दोष हैं। कुछ मुनि कदाचित् सप्राभृतिका शय्या में ठहरे। वहां शय्यातर के कोई अतिथि आ गए। वसति को शून्य देखकर बलि के निमित्त आने वाले दो प्रकार के लोग होते हैं। कुछ वह अपने अतिथियों को वहां ठहराता है। इसी प्रकार बटुक, स्वाभाविक रूप से वहां आते हैं और कुछ माया से वहां आते चारण, भट आदि को भी वसति दे सकता है। इनके कारण हैं। कुछ बलि के निमित्त आए हुए लोग वहां वसतिपाल के अनेक दोष होते हैं।
रूप में बाल मुनि को देखकर भांड-उपकरणों का अपहरण ५५२. अहिगरण मारणाऽणीणियम्मि अच्छंते वालि आयवहो। कर लेते हैं। अथवा वे बलि चढ़ाते हुए उपकरणों को लेपयुक्त
तिरितीय जहा वाले, सूतिमणुस्सीए उड्डाहो॥ कर देते हैं, तब वह बालक कहता है-मैं उपकरणों को बाहर ५५३. छड्डेउं व जइ गया, उज्झमणुज्झंति होति दोसा उ। रख देता हूं। जब वह बालक बाहर जाकर पुनः प्रवेश करता
एवं ता सुन्नाए, बाले ठविते इमे दोसा॥ है, इसके अंतराल में दूसरे लोग अन्य उपकरणों का शून्य वसति में व्याल-सर्प प्रवेश कर सकता है। श्रमण अपहरण कर लेते हैं। कुछ लोग माया से वहां आकर बाल आते हैं और उसे निकालते हैं तो अधिकरण दोष होता मुनि को कहते हैं बलि आ रही है। तुम बाहर जाओ। इस हे सर्प वहां से निकल कर हरित आदि से गुजरता है। अथवा प्रकार उसको बाहर निकाल कर उसकी उपधि का हरण कर निष्कासित होता हुआ वह सर्प मुनि को डस लेता है तो मृत्यु लेते हैं। अथवा वे उसे कहते हैं जब तक हम बलि की विधि हो सकती है। यदि नहीं निकालते हैं, सर्प वहीं रहता है तो करें, तब तक तुम बाहर रहो। अथवा वे कहते हैं तुम अपनी आत्मविराधना होती है। शून्य वसति में कोई तिर्यंच मादा उपधि बाहर ले जाओ। जब कुछ उपधि बाहर ले जाता है तो प्रसव कर देती है। उस प्रसूता को निष्कासित करने पर सर्प शेष उपधि का अपहरण कर डालते हैं। की भांति दोष उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार प्रसूता मानवी को ५५७. कतिएण सभावेण व, कहापमत्ते हरंति से अण्णे। निकालने पर प्रवचन का उड्डाह होता है तथा अनेक अन्यान्य किड्डा सयं व रिंखा, पासति व तहेव किड्डदुगं॥ दोष होते हैं।
कुछेक लोग स्वाभाविकरूप से और कुछ कपटपूर्वक वहां अथवा वह प्रसूता स्त्री अपने बालक को वहीं छोड़कर धर्मकथा सुनने के लिए आते हैं और अकेले बाल मुनि को जा सकती है। और यदि श्रमण उस सद्यप्रसूत बालक का देखकर धर्मकथा करने के लिए कहते हैं। वह बाल मुनि कथा परित्याग करते हैं तो दयाविहीन होने का दोष होता है। में प्रमत्त हो जाता है, लवलीन हो जाता है। तब कुछ अन्य परित्याग न करने पर प्रवचन का उपहास होता है। ये सारे व्यक्ति उपकरणों का अपहरण कर लेते हैं। दोष वसति को शून्य कर चले जाने पर होते हैं। बालक क्रीड़ा के निमित्त भी दो प्रकार के पुरुष आते हैंमुनि को वसतिपाल के रूप में बिठाकर जाने से ये दोष स्वाभाविकरूप से तथा कपटपूर्वक। जब वह बाल मुनि होते हैं।
क्रीड़ा में संलग्न नहीं होता, तब वे कहते हैं-हमको क्रीड़ा ५५४. बलि धम्मकहा किड्डा, पमज्जणाऽऽवरिसणा य पाहुडिया। और रिंखा (झूलते) करते हुए देखो। वह बाल मुनि क्रीड़ा
खंधार अगणि भंगे, मालव-तेणा य नाती य॥ देखने में प्रमत्त हो जाता है। वे उपकरणों का अपहरण कर निम्न द्वारों से वे दोष वक्तव्य हैं
लेते हैं। १. बलिद्वार ७. स्कंधावारद्वार
५५८. जो चेव बलीए गमो, पमज्जणाऽवरिसणे वि सो चेव। २. धर्मकथाद्वार ८. अग्निद्वार
पाइडियं वा गेण्हसु, परिसाडणियं व जा कुणिमो॥ ३. क्रीडाद्वार ९. भंगद्वार
जो बलिद्वार में विकल्प कहे गए थे, वे ही विकल्प ४. प्रमार्जनद्वार १०. मालवस्तेनद्वार
प्रमार्जन और आवर्षण में जानने चाहिए। प्राभृतिका के दो अर्थ ५. आवर्षणद्वार ११. ज्ञातिद्वार।
हैं-भिक्षा और अर्चनिका। आए हए लोग कहते हैं-भिक्षा लो ६. प्राभृतिकाद्वार
अथवा जब तक हम अर्चनिका (परिशाटनिका) करें तब तक १. सप्राभृतिका शय्या सार्वजनिक होती है। वहां लोग आकर बलि-क्रिया करते हैं-सप्राभृतिका नाम सार्वजनिका यत्र आगत्य बलिः प्रक्षिप्यते।
(वृ. प. १६२)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org