SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहत्कल्पभाष्यम् तुम बाहर जाओ। वह बाहर जाता है, और तब उपकरणों का अपहरण हो जाता है। ५५९. खंधारभया नासति, एस व एइ त्ति कइयवे णस्स। अगणिभया व पलायति, नस्ससु अगणी व एति त्ति॥ कोई स्कंधावार के आगमन की बात सुनकर स्वाभाविक रूप से पलायन कर जाता है। कोई कपटपूर्वक बाल मुनि को स्कंधावार के आगमन की बात कहता है तब वह भी पलायन कर जाता है। पीछे से उपकरणों का अपहरण कर लिया जाता है। इसी प्रकार अग्नि के भय से स्वाभाविक पलायन होता है और कोई कपटपूर्वक उसे कहता है क्षुल्लक! जल्दी भागो। अग्नि इधर ही आ रही है। वह भयभीत होकर भाग जाता है। उसकी उपधि का अपहरण हो जाता है। ५६०. उवहीलोभ भया वा, न नीति न य तत्थ किंचि नीणेइ। गुत्तो व सयं डज्झइ, उवहिं च विणा उ जा हाणी॥ उपधि के लोभ से अथवा अग्नि के भय से वह बालमुनि न स्वयं बाहर जाता है और न उपधि आदि को बाहर निकालता है। तब वह उपधि के लोभ से अन्दर बैठा हुआ अग्नि से जलकर भस्म हो जाता है और उपधि का अपहरण भी हो जाता है। अब उपधि के बिना जो हानि होती है, वह साधुओं को भुगतनी पड़ती है। ५६१. मालवतेणा पडिया, इयरे वा नासती जणेण समं। न य गेण्हइ सारुवहि, तप्पडिबद्धो व हीरेजा॥ कोई यह बात स्वाभाविक रूप से कहता है अथवा मायापूर्वक कि मालव के स्तेन अथवा अन्य स्तेन आ गए हैं। यह सुनकर लोगों के साथ वह बाल मुनि भी पलायन कर जाता है। तब उपकरणों का अपहरण हो जाता है। स्वाभाविक कथन को सुनकर वह बालमुनि सारभूत उपकरणों को लेकर पलायन नहीं करता है तो हानि होती है और यदि वह उपधि से प्रतिबद्ध होकर वहीं रहता है तो स्तेन आते हैं और उपधिसहित उसका भी अपहरण कर लेते हैं। ५६२. सन्नायगेहि नीते, एंति व नीय त्ति नढे जं उवहिं। कहिं नीय त्ति कइयवे, कहिए अन्नस्स सो कइए। ५६३. चिंधेहिं आगमेउं, सो वि य साहेइ तुह निया पत्ता। नेमो उवहिग्गहणं, तेहिं व हं पेसितो हरइ॥ स्वभावतः स्वज्ञातिक जन वहां आए और एकाकी बालक मुनि को देखकर उसे ले जाते हैं। अन्य उपधि का अपहरण कर लेते हैं। अथवा किसी ने बालक मुनि से कहा-तुम्हारे ज्ञातिजन आ रहे हैं। यह सुनकर वह भाग जाता है। उसके जाने पर दूसरे लोग उपधि का अपहरण कर लेते हैं। कोई धूर्त व्यक्ति बालमुनि के पास आकर ज्ञातिजनों के विषय में पूछकर दूसरे धूर्त व्यक्ति को बताता है। वह दूसरा धूर्त व्यक्ति ज्ञातिजनों के नाम-ठाम, चिह्न आदि जानकर बालमुनि के पास आकर कहता है-तुम्हारे ज्ञातिजन तुमको ले जाने के लिए आए हैं। तब वह बालमुनि उनकी बात में आकर पलायन कर जाता है। तब वे उपधिग्रहण कर लेते हैं। अथवा कोई धूर्त आकर बालमुनि से कहता है तुम्हारे ज्ञातिजनों ने मुझे तुम्हारे समाचार अथवा तुमको लाने के लिए भेजा है। वह उनकी बातों में आकर साथ हो जाता है। वे उसका और उसकी सारी उपधि का अपहरण कर लेते हैं। ५६४. एते पदे न रक्खति, बाल गिलाणे तहेव अव्वत्ते। निद्दा-कहापमत्ते, वत्ते वि य जे भवे भिक्खू॥ इन बलि आदि स्थानों की रक्षा बाल, ग्लान तथा अव्यक्त मुनि नहीं कर सकता। जो मुनि व्यक्त होने पर भी निद्राप्रमत्त और कथाप्रमत्त होता है, वह भी इन स्थानों की रक्षा नहीं कर सकता। ५६५. एमेव गिलाणे वी, सयकिड्ड-कहा-पलायणे मोत्तुं। अव्वत्तो उ अगीतो, रक्खणकप्पे परोक्खो उ॥ इसी प्रकार ग्लान को स्थानरक्षा के लिए रखकर जाने से भी ये ही सारे दोष प्राप्त होते हैं। इनमें स्वयं क्रीड़ा करने, कथा करने, पलायन करने संबंधी दोष नहीं होते। अव्यक्त मुनि अगीतार्थ होता है। वह रक्षणकल्प के लिए परोक्ष होता है, अयोग्य होता है। ५६६. तम्हा खलु अब्बाले, अगिलाणे वत्तमप्पमत्ते य। कप्पइ य वसहिपालो, धिइमं तह वीरियसमत्थो।। इसलिए अबाल, अग्लान, व्यक्त, अप्रमत्त, धृतिमान तथा वीर्यसंपन्न हो, उस मुनि को वसतिपाल के रूप में स्थापित किया जा सकता है। ५६७. सति लंभम्मि अणियया, पणगं जा ताव होति अच्छित्ती। जहनेण गुरू चिट्ठइ, तस्संदिट्ठो विमा जयणा ।। भिक्षा का लाभ सहज होने पर अनियत वसतिपाल रखे जा सकते हैं। अथवा आचार्य आदि पांच वहां रहते हैं अथवा आचार्य उस एक मुनि के साथ रहते हैं जो अव्यवच्छित्ति करने में समर्थ हो। जघन्यतः गुरु अकेले वहां रहते हैं। अथवा आचार्य आदि गणकार्य के लिए बाहर जा रहे हों तो उनके द्वारा संदिष्ट मुनि वहां रहता है। वह वसतिपाल के रूप में सारी यतना का पालन करे। ५६८. अप्पुव्वमतिहिकरणे, गाहा ण य अण्णभंडगं छिविमो। भणइ व अठायमाणे, जं नासइ तुज्झ तं उवरिं॥ (सार्वजनिक स्थान में कैसे जाना जाए कि अमुक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy