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पहला उद्देशक
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साध्वी वस्त्र की याचना करे। उसके अभाव में, इन स्थानों को छोड़कर, तरुणी विमिश्रित स्थविरा साध्वी वस्त्र की याचना कर सकती है। वे स्थान ये हैं२८२२.कावालिए य भिक्खू, सुइवादी कुव्विए अ वेसित्थी।
वाणियग तरुण संसठ्ठ मेहणे भोइए चेव॥ २८२३.माता पिया य भगिणी, भाउग संबंधिए य तह सन्नी।
___भावितकुलेसु गहणं, असई पडिलोम जयणाए।
कापालिक, बौद्ध भिक्षु, शुचिवादी, कूर्चन्धर, वेश्यास्त्री, वणिक, तरुण, संसृष्ट (पूर्वपरिचितउद्भ्रामक), मैथुन-मामा का पुत्र, भोक्ता-पति, माता, पिता, भगिनी, भ्राता, संबंधी तथा श्रावक-इन स्थानों को छोड़कर साध्वियां भावितकुलों से वस्त्र का ग्रहण कर सकती हैं। इन कुलों के अभाव में इन प्रतिषिद्ध स्थानों से प्रतिलोम के क्रम से यतनापूर्वक वस्त्र की याचना की जा सकती है। २८२४.अट्ठी विज्जा कुच्छित,
भिक्खु निरुद्धा उ लज्जएऽण्णत्थ। एव दगसोय कुच्चिग,
सुइग त्ति य बंभचारित्ता। अस्थि अर्थात् अस्थिसरजस्क कापालिक लोग विद्या या मंत्र से कुत्सित अभिप्राय वाले होते हैं। भिक्षु-बौद्ध भिक्षु, अपनी कामभावना को जबरन निरोध करते हैं और वे अन्यत्र उसकी पूर्ति करने में लज्जा का अनुभव करते हैं, इसलिए वे श्रमणियों के प्रति आसक्त होते हैं। इसी प्रकार दकसौकरिक-परिव्राजक और कूर्चिक-कूर्चन्धर वे भी यह मानते हैं कि श्रमणियां ब्रह्मचारिणी होने के कारण अप्रसवा होती हैं, इसलिए ये शुचिभूत हैं। २८२५.अन्नठवणट्ठ जुन्ना, अभिओगे जा व रूविणी गणिया।
भोइग चोरिय दिन्नं, दटुं समणीसु उड्डाहो॥ कोई जीर्ण गणिका अपने स्थान पर अपरगणिका को स्थापित करने के लिए किसी रूपवती श्रमणी के प्रति अभियोग का प्रयोग करती है। किसी मातुलपुत्र ने अपनी भोजिका के वस्त्र को चुराकर साध्वी को दिया। साध्वी को उस वस्त्र से प्रावृत देखकर भोजिका उसका उड्डाह करती है। २८२६.देसिय वाणिय लोभा, सई दिन्नेण उ चिरं पि होहित्ति।
तरुणुब्भामग भोयग, संका आतोभयसमुत्था॥ देशान्तर से आया हुआ वणिक् सोचता है यदि इन श्रमणियों को एक बार प्रचुर दान दूंगा तो चिरकाल तक मेरी हो जाएंगी, इस प्रकार वह उनको प्रलुब्ध करता है। तरुण, उद्भ्रामक तथा भोक्ता इनके हाथ से वस्त्र आदि लेने पर शंका तथा आत्मोभयसमुत्थ दोष होते हैं।
२८२७.दाहामो णं कस्सइ, नियया सो होहिई सहाओ थे।
सन्नी वि संजयाणं, दाहिइ इति विप्परीणामे।। निजक-स्वजन सोचते हैं, इस साध्वी को हम कुछ देंगे तो यह हमारी सहायक होगी। श्रावक सोचता है-यह मेरी होगी तो अनेक मुनियों को दान दे सकेगी। इस सोच से वह उस साध्वी को विपरिणत करता है। २८२८.मग्गंति थेरियाओ, लद्धं पि य थेरियाउ गेण्हति।
आगार दट्ठ तरुणीण व देंते तं न गिण्हंति॥ स्थविर साध्वियां वस्त्र की अन्वेषणा करती हैं। प्राप्त होने पर स्थविर साध्वियां ही उन वस्त्रों को ग्रहण करती हैं। वस्त्र दाता स्थविर साध्वी को वस्त्र न देकर, कुछ आकार-इशारे कर कहता है-मैं उस तरुण साध्वी को वस्त्र दूंगा। इस प्रकार वस्त्र देने वाले दाता से वस्त्र न लें। २८२९.सत्त दिवसे ठवित्ता, कप्पे कते थेरिया परिच्छंति।
सुद्धस्स होइ धरणा, असुद्ध छेत्तुं परिठ्ठवणा॥ वस्त्र को उपाश्रय में लाकर सात दिन तक स्थापित रखें। फिर उनका कल्प करें, उनका प्रक्षालन करें। कल्प करने के पश्चात् स्थविर मुनि उसका प्रयोग कर परीक्षा करें। यदि शद्ध है तो उसका उपभोग किया जा सकता हैं। अशुद्ध अर्थात् अशुद्ध भावोत्पादक होता है तो खंड-खंड कर उसको परिष्ठापित करना होता है। २८३०.जं पुण पढमं वत्थं, चउकोणा तस्स होति लाभाए।
वितिरिच्छंऽता मज्झे, य गरहिया चउगुरू आणा।। वस्त्र से होने वाले लाभ-अलाभ के परिज्ञान का उपायजो पहला वस्त्र प्राप्त होता है उसके यदि चारों कोने अंजनखंजन आदि चिह्न से उपलक्षित हों तो वह लाभ के लिए होता है। वस्त्र के तिरश्चीन दोनों अन्त्यविभाग तथा मध्यविभाग यदि अंजन लेप आदि से चिह्नित हों तो वह गर्हित माना जाता है। इसके ग्रहण से चतुर्गुरु प्रायश्चित्त तथा भगवद् आज्ञा की विराधना होती है। २८३१.नवभागकए वत्थे, चउसु वि कोणेसु होइ वत्थस्स।
लाभो विणासमन्ने, अंते मज्झे य जाणाहि॥ वस्त्र के नौ भाग करने पर, चारों कोनों तथा मध्यवर्ती दो भाग यदि अंजन आदि लेप से युक्त हों तो वह लाभ के लिए होता है। वस्त्र के मध्यवर्ती तीन भाग-दो अन्त्यविभाग और एक सर्वमध्यवर्ती विभाग यदि वे लेप युक्त हों तो वह वस्त्र विनाश के लिए होता है। २८३२.अंजण-खंजण-कद्दमलित्ते,
मूसगभक्खिय अग्गिविदड्डे। तुन्नि य कुट्टिय पज्जवलीढे,
होइ विवाग सुहो असुहो वा।।
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