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निग्गंथिं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्धं 'केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पर से सागारकडं गाय' पवत्तिणिपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणुवेत्ता परिहार परिहरित्तए ।
(सूत्र ४०) निग्गंथिं च णं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा 'निक्खतं समाणिं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं गहाय पवत्तिणी पायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओग्गहं अणण्णुवेत्ता' परिहारं परिहरित्तए ॥
(सूत्र ४१) २८१५.निग्गंथिवत्थगहणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया । मिच्छत्ते संकाई, पसज्जणा जाव चरिमपदं ॥ साध्वी यदि गृहस्थ से वस्त्र ग्रहण करती है तो उसे चार अनुद्घात - गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। मिथ्यात्व, शंका आदि दोष होते हैं तथा प्रसजनाः यावत् पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
२८१६. पुरिसेहिंतो वत्थं, गिण्हंतिं दिस्स संकमादीया ।
ओभासणा चउत्थे, पडिसिद्धे करेज्ज उड्डाहं ॥ पुरुषों से वस्त्र - ग्रहण करती हुई साध्वी को देखकर शंका आदि दोष होते हैं। गृहस्थ वस्त्र देकर साध्वी से मैथुन की याचना करता है। प्रतिषेध करने पर वह उड्डाह कर सकता है।
२८१७. लोभेअ आभिओगे, विराहणा पट्टएण दिट्टंतो ।
दायव्व गणहरेणं, तं पि परिच्छित्तु जयणा ॥ स्त्री को सहजतया प्रलुब्ध किया जा सकता है। कोई उसको वस्त्र आदि से लुब्ध करता है, कोई उसको वश में करने के लिए अभियोग का प्रयोग करता है। इससे चारित्र विराधना होती है। यहां पट्टक का दृष्टांत है। इसलिए गणधर ही सात दिनों तक वस्त्र की परीक्षा करके यतनापूर्वक संयतियों को वस्त्र दे)
१. प्रसजना नाम - भोजिका घाटिकादि प्रसंगपरंपरा ।
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बृहत्कल्पभाष्यम् २८१८. पगई पेलवसत्ता, लोभिज्जइ जेण तेण वा इत्थी । अवि य हु मोहो दिप्पइ सइरं तासिं सरीरेसु ॥ स्त्री प्रकृति से ही तुच्छधृतिबलवाली होती है, अतः उसे किसी भी प्रकार से प्रलुब्ध किया जा सकता है। वह स्वभावतः प्रबल मोहवाली होती है। जब वह पुरुषों से संलाप करती है या दान ग्रहण करती है तब स्वेच्छा से उसके शरीर में मोह उद्दीप्त होता है। २८१९. वियरग समीवारामे, ससरक्खे पुप्फदाण पट्ट कया । निसि वेल दारपिट्टण, पुच्छा गामेण निच्छुभणं ॥ पट्टक दृष्टांत - एक गांव में बगीचे के पास एक विदरककूपिका थी। वहां स्त्रियां पानी लेने आती थीं। उस बगीचे में एक संन्यासी रहता था। वह उस स्त्री के प्रति आसक्त हो गया। उसने उस स्त्री को अभिमंत्रित फूल दिए। उस स्त्री ने उन फूलों को पट्ट पर रख दिया। वे फूल आधी रात में घर का दरवाजा खटखटाते थे। गृहस्वामी ने सारी बात की जानकारी कर, ग्रामवासियों को वस्तुस्थिति से परिचित करा उस संन्यासी को गांव से निष्कासित कर डाला । २८२०. सत्त दिवसे ठवेत्ता, थेरपरिच्छाऽपरिच्छणे गुरुगा ।
देइ गणी गणिणीए, गुरुगा सय दाण अट्ठाणे ॥ गणधर साध्वियों के प्रायोग्य वस्त्रों को प्राप्तकर सात दिनों तक उनको स्थापित रखें। फिर उन वस्त्रों से स्थविर मुनि को प्रावृत करे। यदि कोई विकार न हो तो बहुत अच्छा । इस प्रकार परीक्षा करे। यदि बिना परीक्षा किए संयतियों को वस्त्र देते हैं तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है | गणी - गणधर वस्त्रों को गणिनी - प्रवर्तनी को दे । प्रवर्तनी फिर साध्वियों को वितरित करे। यदि आचार्य साध्वियों को वस्त्र देते हैं तो उनको चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि आचार्य स्वयं वस्त्र का दान देते हैं तो उनकी अस्थान में स्थापना होती है - कोई साध्वी कह सकती है-इस साध्वी को सुंदर वस्त्र दे दिया, मुझे यह पुराना वस्त्र दिया है। २८२१. असइ समणाण चोयग !
जाइय- निमंतणवत्थ तह चेव ।
जयंति थेरि असई,
विमिस्सिया मोत्तिमे ठाणे ॥
यदि ऐसा है तो यह सूत्र निरर्थक हो जाएगा, क्योंकि सूत्र में संयतियों को वस्त्र याचना की अनुज्ञा दी है। आचार्य कहते हैं - शिष्य ! सूत्र निरर्थक नहीं होता । श्रमणों के अभाव में स्थविरा साध्वी वस्त्र ग्रहण कर सकती है। याञ्चाप्राप्त और निमंत्रणवस्त्रों के लिए पूर्व विधि ही ज्ञातव्य है । स्थविरा
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