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पहला उद्देशक
करने पर उसे परदारदोष की बात समझाए और कहे तुम मेरी मां हो, बहिन हो।
२८०६. एक्स्स व एक्कस्स व, कज्जे दिज्जंत गिण्हई जो उ । ते चैव तस्स दोसा, बालम्मि य भावसंबंधो ॥ पूर्वसंबंध या पश्चात् संबंध के प्रयोजन से दिए जाने वाले और ग्रहण किए जाने वाले वस्त्र के वे ही पूर्वोक्त दोष होते हैं। बालविषयक भावसंबंध आगे प्रतिपाद्य हैं। २८०७. अहवण पुट्ठा पुव्वेण पच्छबंधेण वा सरिसमाह ।
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संकाइया उ तत्थ वि, कडगा य बहू महिलियाणं ।। अथवा उस वस्त्रदात्री को पूछने पर वह पूर्वसंबंध के आधार पर कहती है-जैसा मेरा भाई है वैसे ही तुम दीख रहे हो, और पश्चात्संबंध के आधार पर कहती है-तुम मेरे पति के सदृश दीख रहे हो यदि इस कथन द्वारा दिए जाने वाले वस्त्र को मुनि ग्रहण करता है तो वहां भी शंका आदि दोष होते हैं। महिलाओं में बहुत माया होती है। २८०८. एयोसविमुखं वत्थम्गहणं तु होइ कायव्यं । खमउत्ति दुब्बलो त्ति य, धम्मो त्ति य होति निद्दोसं ॥ इन दोषों से विमुक्त वस्त्रग्रहण करना चाहिए। यदि दात्री कहे कि तुम क्षपक तपस्वी हो, दुर्बल हो अथवा वस्त्रदान से धर्म होता है इसलिए तुमको वस्त्र दे रही हूं, तो वह निर्दोष है।
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२८०९. आरंभनियत्ताणं,
अकिणंताणं
अकारविंताणं । धम्मट्ठा दायव्वं, गिहीहि धम्मे कयमणाणं ॥ जो आरंभ से निवृत्त हैं, जो कुछ भी क्रय नहीं करते तथा न दूसरों से आरंभ और क्रय करवाते हैं, जो धर्म में मन लगाए हुए हैं अर्थात् साधु हैं, उनको गृहस्थ धर्म के लिए दान दें।
२८१०. संघाइए पविद्वे, रायणिए तह य ओमरायणिए ।
जं लब्भइ पाओग्गं रायणिए उग्गहो होइ ॥ एक संघाटक अर्थात् दो मुनि भिक्षा के लिए गए। एक रात्निक है, दूसरा उससे छोटा है जो कुछ प्रायोग्य प्राप्त होता है, वह सारा रात्निक मुनि का अवग्रह होता है, वह उसका स्वामी है।
२८११. दोच्चं पि उग्गहो त्ति य,
hs गिहत्थेसु दोच्चमिच्छंति । साग ! गुरुणो नयामो,
अणिच्छे पच्चाहरिस्सामो ॥ दूसरी बार भी अवग्रह की अनुज्ञा लेनी चाहिए। यह जो सूत्र में आल कही है, उसकी अर्थाभिव्यक्ति कुछ आचार्य यह करते हैं कि गृहस्थ से दूसरी बार अवग्रह की अनुज्ञा लेनी
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चाहिए। वह कहे - श्रावक ! हम वह वस्त्र गुरु के पास ले जाते हैं, (यदि वे चाहेंगे तो हम दूसरी बार तुम्हारी अनुज्ञा ले लेंगे।) यदि वे नहीं चाहेंगे तो हम यह वस्त्र तुम्हें लाकर दे देंगे।
२८१२. इहरा परिवणिया, तस्स व पच्चप्पिणंति अहिगरणं । गिहिगहणे अहिगरणं, सो वा दडूण वोच्छेदं ॥ यदि ऐसा नहीं करते हैं तो परिष्ठापनिका दोष आता है। अप्रातिहारिक वस्त्र का परिभोग कर गृहस्थ को पुनः लौटाते हैं तो अधिकरण होता है। गृहस्थ उसको लेता है तो भी अधिकरण होता है। यदि उस वस्त्र को अन्य गृहस्थ लेता है, तो पूर्व वस्त्रदाता साधुओं के लिए वस्त्रदान का व्यवच्छेद कर देता है।
२८१३. चोयग गुरूपडिसिद्धे, तहिं पउत्थे धरित दिनं तु ।
धरणुज्झणे अहिगरणं, गेण्डेज्ज सयं व परिणीयं ॥ शिष्य ! तुमने जो दोष बताए हैं, वे सारे दोष तुम्हारी क्रिया में होते हैं। वस्त्र लाकर गुरु को समर्पित किया। उसकी प्रयोजनीयता न होने पर गुरु ने उसका प्रतिषेध दिया। शिष्य को ग्रामान्तर भेज दिया। यदि वह वस्त्र का परिभोग करता है तो वह अदत्तादान है। अमुक का मानकर उस वस्त्र को धारण करता है या परिष्ठापना करता है तो अधिकरण तथा परिष्ठापना दोष लगता है वह उस प्रतिनीत वस्त्र को स्वीकार कर लेता है, लौटाता नहीं। अतः द्वितीय अवग्रह गृहस्थ का नहीं, आचार्य का ही होता है।
निग्गंथं च णं बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खतं समाणं केइ वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा उवनिमंतेज्जा, कप्पड़ से सागारकडे गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि ओम्हं अणण्णुवेत्ता परिहारं परिहरित्तए ॥ (सूत्र ३९) २८१४. बहिया व निग्गयाणं जायणवत्थं तहेव जयणाए । निमंतणवत्थे तहेव, सुखमसुद्धं च खमगादी ॥ बहिः का अर्थ है-विचारभूमी (संज्ञाभूमी) या विहारभूमी ( स्वाध्यायभूमी) में निर्गत साधुओं का याञ्चावस्त्र पूर्वोक्त यतनापूर्वक ग्रहण करना कल्पता है निमंत्रण वस्त्र भी उसी प्रकार (गाथा २७९५ आदि) शुद्ध या अशुद्ध होता है। शुद्ध वह है जो क्षपक को या धर्म की बुद्धि से दिया जाता है। अशुद्ध वह है जो मैथुन - वेंटल आदि कार्य के लिए दिया जाता है।
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