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है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं।
२७९७. मिच्छत्त सोच्च संका, विराहणा भोइए तहिं गए वा ।
चड व विंटलं वा, वेंटल दाणं च वबहारो ॥ भोगिनी द्वारा दिए गए वस्त्र की बात सुनकर भोगिक में मिथ्यात्व आ सकता है, उसे शंका हो सकती है। भोगिक के वहां रहते या देशान्तर में चले जाने पर, वहां से लौट आने पर यह विराधना होती है वह स्त्री मैथुन की याचना करे या वेंटल ( वशीकरण प्रयोग) आदि का प्रयोग पूछे तो वह मुनि इन बातों को नकारता हुआ उसको कहे ऐसा करना हमें नहीं कल्पता । यदि वह स्त्री वस्त्र को लौटाने के लिए कहे तो उसे यह वस्त्र लाकर दे दे। यदि वह वस्त्र अन्य किसी के काम आ गया हो और वह स्त्री उसी वस्त्र के लिए आग्रह करे तो राजकुल में शिकायत करे। २७९८. वत्थम्मि नीणियम्मिं,
किं दलसि अपुच्छिऊण जह गेहे । अन्नरस भोयगस्स ब.
संका घडिया णु किं पुव्विं ॥ भोगिनी के द्वारा वस्त्र दिए जाने पर यदि 'क्यों दे रही हो ?' यह पूछे बिना ही यदि वस्त्र का ग्रहण किया जाता है तो उस स्त्री के पति या अन्य घर वालों (श्वसुर देवर) को शंका होती है। वे सोचते हैं-इन दोनों के परस्पर पहले से ही कोई संबंध रहा है कि वस्त्र का दान और ग्रहण मौन भावं से किया जा रहा है। २७९९.मिच्छत्तं गच्छेज्जा, दिज्जंतं दट्टु भोयओ तीसे । वोच्छेद पओसं वा एगमणेमाण सो कुज्जा ॥ उस भोगिनी को वस्त्र देते हुए देखकर उसका पति (भोगिक) मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकता है। तब वह उस एक साधु या अनेक साधुओं के प्रति प्रविष्ट होकर दान देने का व्यवच्छेद कर सकता है।
२८००. एमेव पउथे भोइयम्मि तुसिणीयदान महणे तु । महतरगादीकहिए, एगतर पतोस वोच्छेदो ॥ २८०१. मेहुणसंकमसंके, गुरुगा मूलं च वेंटले लहुगा । संकमसंके गुरुगा, सविसेसतरा पउत्थम्मि ॥ इसी प्रकार प्रोषित - देशान्तर गए हुए भोगिक के विषय में भी दोष जानने चाहिए। जब भोगिक देशान्तर से लौटा तब महत्तरिका, दासी आदि ने भोगिनी और मुनि के मौन दान और ग्रहण की बात कही। तब वह भोगिक अपनी पत्नी या मुनि के प्रति प्रद्विष्ट हो जाता है तब वह उस मुनि का या समस्त मुनियों के दान का व्यवच्छेद कर डालता है। इस
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बृहत्कल्पभाष्यम्
प्रसंग में मैथुन की शंका होने पर चतुर्गुरु और निःशंकित होने पर मूल का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वेंटल की शंका होने पर चतुर्लघु और निःशंकित होने पर चतुर्गुरु । प्रोषितभर्तृक में विशेषतर दोष होते हैं, उनका यथास्थान पहले ही निर्देश कर दिया गया है।
२८०२. एवं ता गेण्हते, गहिए दोसा पुणो इमे होंति ।
घरगयमुवस्सए वा, ओभासइ पुच्छए वा वि ॥ वस्त्र को ग्रहण करते हुए ये दोष होते हैं। वस्त्र को ग्रहण करने के पश्चात् ये दोष होते हैं। उसी घर में जब वह मुनि जाता है या उस घर की स्त्री उपाश्रय में आती है तब वह मैथुन के लिए कहती है अथवा बॅटल वशीकरण के लिए पूछती है।
२८०३. पुच्छाहीणं गहियं आगमणं पुच्छणा निमित्तस्स ।
छिन्नं पि हु दायव्वं ववहारो लब्भए तत् ॥ मुनि ने वस्त्र ग्रहण काल में बिना पूछे ही वस्त्र ले लिया । तब वह स्त्री उपाश्रय में आकर निमित्त विषयक बात पूछती है। न बताने पर वस्त्र को लौटाने की बात कहती है। तब वस्त्र देना चाहिए वस्त्र को फाड़ डाला हो तो भी उसे वह दे देना चाहिए।
यदि वह छिन्न वस्त्र न ले तो राजकुल में व्यवहार के लिए जाना चाहिए। वहां के कारणिक (न्याय करने वालों के) समक्ष यह व्यवहार प्राप्त होने की बात कहनी चाहिए।
एक व्यक्ति ने वृक्ष बेचा खरीददार ने उसकी लकड़ियां बना घर ले गया। अब बेचने वाला कहता है-मूल्य लेकर मेरा वृक्ष मुझे दो क्या उसको वृक्ष लौटाया जा सकता है? इसी प्रकार वस्त्र के खंड कर दिए जाने पर, खंड ही लौटाए जा सकते हैं, पूरा वस्त्र नहीं।
२८०४. पाहुणएणऽण्णेण व नीयं व हियं व होइ द वा
तहियं अणुसहाई, अन्नं वा दड्ढ वह मोतृणं ॥ वह वस्त्र प्राघूर्णक मुनि द्वारा अन्यत्र ले जाया गया हो, या चोरों ने उसका हरण कर लिया हो या अग्नि द्वारा जल गया हो तो दाता को धर्मकथा कहकर समझाना चाहिए। दग्ध वस्त्र को छोड़कर उसे अन्य वस्त्र देना चाहिए। २८०५. न वि जाणामो निमित्तं,
न य णे कप्पह पउंजिडं गिहिणो ।
परदारदोसकहणं,
तं मम माया य भगिणी य॥
वह दात्री स्त्री मैथुन या वेंटल की बात कहे तो मुनि उसे कहे-हम निमित्तशास्त्र नहीं जानते तथा गृहस्थों को उस विषय में बताना भी हमें नहीं कल्पता मैथुन की याचना
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