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पहला उद्देशक
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२७८८.जत्थ वि य गंतुकामा, तत्थ वि कारिंति तेसि नायं तु। वा उवनिमंतेज्जा, कप्पइ से सागारकडं .. आरक्खियाइ ते वि य, तेणेव कमेण पुच्छंति॥
गहाय आयरियपायमूले ठवेत्ता दोच्चं पि जिस राज्य में साधु जाना चाहे और यदि वहां साधु हो
उग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहारं परिहरित्तए॥ तो उनको अवगत कराना चाहिए कि हम आ रहे हैं। तब तत्रस्थित मुनि भी वहां के आरक्षिकों आदि को उसी क्रम से
(सूत्र ३८) पूछते हैं। उनकी अनुज्ञा मिलने पर उन साधुओं को यह कहलवा देते हैं कि यहां आने की अनुमति प्राप्त हो गई है।
२७९२.अविरुद्ध भिक्खगतं, कोइ निमंतेज्ज वत्थमाईहिं। २७८९.राईण दोण्ह भंडण, आयरिए आसियावणं होइ।
कारण विरुद्धचारी, विगिंचितो वा वि गेण्हेज्जा॥ ___ कयकरणे करणं वा, निवेद जयणाए संकमणं॥
कोई साधु अविरुद्ध अर्थात् विरुद्धराज्यविरहित ग्राम दो राजाओं में परस्पर कलह चल रहा था। एक राज्य में
आदि में भिक्षा के लिए गया। वहां कोई उपासक वस्त्र आदि जो आचार्य थे, उनके प्रति राजा का अतीव सत्कार
ग्रहण करने के लिए निमंत्रण दे अथवा विरुद्धराज्यचारी आदरभाव था। दूसरे राजा ने उन आचार्यों का 'असिवायण'
किसी मुनि के वस्त्र स्तेनों ने चुरा लिए हों और वह वस्त्र अपहरण कर दिया। यदि कोई 'कतकरण' साधु हो, वह
ग्रहण करता है तो वस्त्र-ग्रहण की विधि बतलाई जाती है। अपहरणकर्ता के साथ 'करण' युद्ध कर आचार्य को मुक्त कर
२७९३.अहवा लोइयतेण्णं, निवसीम अइच्छिए इमं भणितं । देता है। यदि कोई कृतकरण न हो तो अपहर्ता राजा से
दोच्चमणणुन्नवेडं, उत्तरियं वत्थभोगादी॥ निवेदन कर यतनापूर्वक शेष साधु वहां से संक्रमण कर दें।
अथवा नृपति की सीमा का अतिक्रमण करना लौकिक२७९०.अब्भरहियस्स हरणे, उज्जाणाईठियस्स गरुणो उ। स्तैन्य है-यह पूर्वसूत्र में कथित है। प्रस्तुत सूत्र में दूसरी बार उव्वट्टणासमत्थे, दूरगए वा वि सवि बोलं॥
अवग्रह अर्थात् आचार्य को बिना ज्ञापित किए, बिना अनुज्ञा २७९१.पेसवियम्मि अदेंते, रन्ना जइ विउ विसज्जिया सिस्सा।
लिए जो मुनि वस्त्र का परिभोग, धारण आदि करता है तो गुरुणो निवेइयम्मि, हारिंतगराइणो पुव्विं॥
यह लोकोत्तरिकस्तैन्य होता है। उद्यान आदि में स्थित अभ्यर्हित गुरु का हरण कर लिया
२७९४.दुविहं च होइ वत्थं, जायणवत्थं निमंतणाए य। जाता है। कोई उद्वर्तनासमर्थ होता है वह आचार्य को छुड़ा
निमंतणवत्थं ठप्पं, जायणवत्थं तु वोच्छामि। लेता है। यदि उद्वर्तना समर्थ कोई नहीं होता है तो अपहर्ता
वस्त्र के दो प्रकार हैं-याञ्चावस्त्र और निमंत्रणावस्त्र। जब दूर चला जाता है तब सभी साध बाढ स्वरों से निमंत्रणावस्त्र स्थाप्य हैं अर्थात् उनके विषय में बाद में कहा चिल्लाते हैं कि हमारे आचार्य का अपहरण हुआ है। यह
जाएगा। याञ्चावस्त्र के विषय में अभी कहूंगा।' सुनकर राजा अपने दूत को भेजता है। आचार्य को समर्पित न २७९५.एयं जायणवत्थं, भणियं एत्तो निमंतणं वोच्छं। करने पर शिष्य राजा को कहते हैं हमको वहां भेज दो। राजा पुच्छादुगपरिसुद्धं, पुणरवि पुच्छेज्जिमा मेरा॥ उनको विसर्जित कर देता है, जाने की अनुज्ञा दे देता है तो इस प्रकार याञ्चावस्त्र विषयक कथन किया गया है। भी उस अपर राज्य में अपहृत गुरु को निवेदन करवाना आगे निमंत्रणावस्त्र की बात कहूंगा। जो निमंत्रणावस्त्र दो चाहिए कि हम भी वहां आ रहे हैं। तब गुरु उस अपर राज्य प्रश्नों-'यह वस्त्र किसका है?' क्या यह प्रतिदिन निवसनीय के राजा को जिसने अपहरण किया था, निवेदन करते हैं कि था? से परिशुद्ध होने पर पुनः तीसरी पृच्छा से पूछे। उसकी 'मेरे शिष्य यहां आ रहे हैं। आप अपने स्थानपालकों को यह मेरा-सामाचारी है। आदेश दें कि वे उनको निरुद्ध न करें।'
२७९६.विउसग्ग जोग संघाडएण भोइयकुले तिविह पुच्छा।
कस्स इमं किं व इम, कस्स व कज्जे लहुग आणा॥ ओग्गह-पदं
मुनि व्युत्सर्ग और योग करके एक दूसरे मुनि को साथ ले
भिक्षा के लिए निकलता है। वह भोगिककुल में गया। वहां निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवाय
वस्त्र के लिए निमंत्रित होने पर वह तीन प्रकार की पृच्छा पडियाए अणुप्पविर्से केइ वत्थेण वा करे-(१) यह वस्त्र किसका है? (२) पहले यह क्या था?
पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पाय-पुंछणेण यह किस प्रयोजन से दे रहे हो?-यदि ऐसा नहीं पूछा जाता १. वृत्तिकार ने यहां पीठिकान्तरगत वस्त्रकल्पिक द्वार की ४६ गाथाओं (६०२ से ६४८ तक) को यथावत् ग्रहण करने की बात कही है।
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