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________________ २८८ -बृहत्कल्पभाष्यम् कुछक __अंजन-खंजन-कर्दम से लिप्त, चूहों आदि द्वारा भक्षित, २८३७.अहवा पिंडो भणिओ, अग्नि के द्वारा विशेषरूप से दग्ध, तुन्नित, कुट्टित रजक न यावि तस्स भणिओ गहणकालो। आदि के द्वारा बहुत पीटा हुआ, पर्यवलीढ-अत्यंत पुराना तस्स गहणं खपाए, ऐसे वस्त्रग्रहण से शुभ-अशुभ विपाक होता है। जो वारेइ अणंतरे सुत्ते शुभविभाग वाले वस्त्र हैं, उनसे शुभ विपाक और जो पूर्व सूत्रों में पिंड का कथन किया गया है, परंतु उसके अशुभविभाग वाले वस्त्र हैं, उनसे अशुभ विपाक होता है। ग्रहण-काल का निर्देश नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में रात्री में उसके २८३३.चउरो य दिग्विया भागा, दुवे भागा य माणुसा। ग्रहण का वर्जन किया गया है। आसुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो॥ २८३८.रातो व वियाले वा, संज्झा राई उ केसिइ विकालो। २८३४.दिव्वेसु उत्तमो लाभो, माणुसेसु य मज्झिमो। चउरो य अणुग्घाया, चोदगपडिघाय आणादी॥ आसुरेसु य गेलन्नं, मज्झे मरणमाइसे॥ कुछेक आचार्य संध्या को रात्री और शेष रात्री को वस्त्र के नौ विभागों के स्वामी विकाल मानते हैं और कुछेक आचार्य संध्या को विकाल और चार कोने दैव्य, अंचलमध्यवर्ती दो भाग-मानुष्य, दो शेष रात्री को रात्री मानते हैं। जो मुनि रात्री या विकाल में भाग आसुर, सर्वमध्यगत भाग राक्षस। इन में शुभ-अशुभ चतुर्विध आहार ग्रहण करता है, खाता है, उसके चतुर्गुरु विभाग ये हैं-दैव्यभाग यदि अंजन आदि से लिप्स हो तो उत्तम मास का प्रायश्चित्त आता है। शिष्य पूछता है-बयालीस लाभदायी होता है। मनुष्य भाग वाला वस्त्र लिप्त हो तो दोषों में रात्रीभोजन का प्रतिषेध नहीं है। बयालीस दोष वर्जित मध्यम लाभ, आसुर भागवाला वस्त्र लिप्त हो तो ग्लानत्व आहार लेने और परिभोग करने में क्या दोष है? आचार्य का कारण और राक्षस भाग वाला वस्त्र लिप्त हो तो मरण की उसके कथन का प्रतिघात करते हुए कहते हैं-इसमें आज्ञाभंग प्रासि होती है। आदि दोष होते हैं। २८३५.जं किंचि होइ वत्थं, पमाणवं सम रुइं थिरं निद्धं। २८३९.जइ वि य न प्पडिसिद्धं, बायालीसाए राइभत्तं तु। परदोसे निरुवहतं, तारिसगं खू भवे धन्नं ॥ छठे महव्वयम्मी, पडिसेहो तस्स नणु वुत्तो॥ जो वस्त्र प्रमाणोपेत, सम, रुचिकारक, स्थिर और यद्यपि बयांलीस दोषों में रात्रीभक्त का प्रतिषेध नहीं किया स्निग्ध होता है तथा जो परदोषों से निरुपहत होता है, वही गया है। किन्तु छठे महाव्रत में उसका प्रतिषेध किया है। वस्त्र धन्य होता है-ज्ञानादि प्राप्त कराने वाला होता है। २८४०.जइ ता दिया न कप्पइ, तमं ति काऊण कोट्ठयाईसु। राइभोयाण-पदं किं पुण तमस्सईए, कप्पिस्सइ सव्वरीए उ॥ जब अंधकार से व्याप्त नीचे द्वार वाले कोठों से दिन में नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा भी भक्त-पान लेना नहीं कल्पता, तब बहुल अंधकारमय 'राओ वा वियाले वा असणं वा पाणं वा रात्री में वह कैसे ग्रहण किया जा सकता है। खाइमं वा साइमं वा' पडिग्गाहेत्तए। २८४१.मिच्छत्तम्मी भिक्खू, विराहणा होइ संजमायाए। नऽन्नत्थ एगेणं पुव्वपडिलेहिएणं पक्खलण खाणु कंटग, विसम दरी वाल साणे य॥ २८४२.गोणे य तेणमादी, उन्भामग एवमाइ आयाए। सेज्जा -संथारएणं॥ संजमविराहणाए, छक्काया पाणवहमादी॥ (सूत्र ४२) रात्री में भिक्षा के लिए घूमता हआ निपँथ भगवान् की २८३६.वयअहिगारे पगए, राईभत्तवयपालणा इणमो। सर्वज्ञता के प्रति शंका का उत्पादन करता है। इससे सुत्तं उदाहु थेरा, मा पीला होज्ज सव्वेसिं॥ मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। इस प्रसंग में भिक्षुक का दृष्टांत पूर्व में तीसरे महाव्रत प्रकरणगत अवग्रह की बात कही है। उससे संयमविराधना और आत्मविराधना-दोनों होती गई थी। प्रस्तुत में रात्रीभक्तव्रत के पालन के लिए यह सूत्र है। रात्री में अंधकार के कारण मुनि प्रस्खलित हो सकता है, स्थविर श्री भद्रबाहस्वामी ने कहा है। इस छठे व्रत के भग्न पैरों में स्थाणु और कांटे लग जाते हैं, विषम गढ़े में गिर होने पर सभी महाव्रतों की पीड़ा-विराधना होती है, इसलिए सकता है, सर्प काट सकता है, कुत्ते उपद्रव कर सकते हैं, इसका प्रतिपादन है। बैल हनन कर सकता है, रात्री में घूमने के कारण आरक्षिक १. वृत्तिकृता एतत् स्वतंत्रसूत्रं स्वीकृतम्। २. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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