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पहला उद्देशक
नंदीसूर्य बारह प्रकार के तूर वाद्यों का एक साथ अजना, पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द सुनाई देना, भृंगार-झारी, छत्र, चामर, वाहन - हाथी, घोड़े आदि तथा यान-शिबिका आदि ये सारे प्रशस्त होते हैं।
श्रमण, संयत, दांत, पुष्प, मोदक, दही, मत्स्य, घंटा, पताका देखकर या सुनकर जानना चाहिए या कहना चाहिए कि यात्रा का प्रयोजन सिद्ध होगा।
१५५१. सज्जायरेऽणसासह, आयरिओ सेसमा चिलिमिलि तु। काउं गिण्हंतुवहिं, सारवियपडिस्सया पुव्विं ॥ शुभ शकुन होने पर आचार्य वहां से प्रस्थान करने से पूर्व शय्यातर को अनुशिष्टि-धर्मकथन करते हैं। वे कहते हैं हम विहार कर रहे हैं। धर्म-कर्म में अप्रमत्त रहना आदि। शेष साधु चिलिमिली से अन्तरित होकर उपधि ग्रहण करते हैं। वे इससे पूर्व-पहले प्रतिश्रय को सम्मार्जित कर देते हैं।
मुनि को देना चाहिए तथा उसे जीर्ण या उपहृत उपधि चाहिए।
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१५५५. वच्चंतेहि य दिट्ठो, गामो रमणिज्जभिक्ख-सज्झाओ।
जं कालमणुत्राओ, अणणुनाए भवे लहुओ ।। विहरण करते हुए साधुओं ने एक रमणीय और भिक्षा तथा स्वाध्याय के लिए उपयुक्त गांव को देखा वहां रहने की जितने काल की अनुज्ञा प्राप्त हो, उतने समय तक रहने में कोई प्रायश्चित्त नहीं है अननुज्ञात काल में रहने पर लघुमास का प्रायश्चित्त आता है।
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१५५६. तवसोसिय उब्वाया, खुल लुक्खाहारदुब्बला वा वि
एग दुग तिनि दिवसे वयंति अप्पाझ्या वसिउं ॥ अथवा जो मुनि तपस्या से कृशकाय हैं, अत्यंत परिश्रान्त हैं, जो 'खुल' अर्थात् कर्कश क्षेत्र से आए हैं, अथवा जो रूक्षाहार करने के कारण दुर्बल हो गए हैं ऐसे मुनि उस गांव में एक, दो, तीन दिन रहकर मनोज्ञाहार से स्वस्थ होकर वहां से विहार कर सकते हैं।
१५५२. बालाईया उवहिं, जं वोढु तरंति तत्तियं गिण्हे ।
जहणणेण अहाजायं, सेसं तरुणा विरिंचंति ।।। बाल वृद्ध तथा राजप्रब्रजित मुनि जितनी उपधि वहन कर सकते हो, उतनी उपधि ही वे ग्रहण करते हैं। यदि सर्वथा उपधि का भार वहन नहीं कर सकते तो जघन्यतः यथाजात-मुंहपत्ती, रजोहरण आदि उपधि ग्रहण करते हैं। शेष तरुण मुनि उपधि का विभाजन कर ग्रहण कर लेते हैं। १५५३. आयरिओहि बालाइयाण गिण्डति संघयणजुत्ता ।
दो सोत्ति उण्णि संथारए य गहणेक्कपासेणं ॥ आचार्य तथा बालमुनियों की उपधि संहननयुक्त अर्थात् समर्थ साधु ग्रहण कर लेते हैं। दो सौत्रिक कल्प, एक ऊनी कल्प तथा संस्तारक-ये सारे एक कंधे पर उठाते हैं और दूसरे कंधे पर अपने उपकरण रखते हैं।
१५५४.रत्तिं न चेव कप्पर, नीयदुवारे विराहणा दुविहा ।
पण्णवण बहुतर गुणा, अणिच्छ बीओ व उवही वा ॥ किसी ने कहा- मुनि को रात्री में विहार करना नहीं कल्पता । क्योंकि भगवान् ने कहा है- 'नीयदुवारं तमसं ......' दिन में भी नीचे द्वार वाले कोठे में मुनि को जाना नहीं कल्पता और जाने पर दो प्रकार की विराधना-संयमविराधना और आत्मविराधना होती है, तो फिर रात्री में विहार करना कैसे कल्प सकता है? इस प्रकार कहने वाले को कहना चाहिए कि दूरतमक्षेत्र में जाने के लिए रात्री में विहरण करने में बहुत गुण होते हैं। इतना कहने पर भी यदि वह रात्री में विहार करना नहीं चाहता तो उसे एक सहयोगी
१. प्रायश्चित्त विषयक विशेषचूर्णि और बृहद्भाष्य में भिन्न मत है। (बृ. पृ. ४५८)
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१५५७. पढमविणे समणुण्णा, सोहीबुट्टी अकारणे परतो
तिन्निव (वि) समणुन्नाया, तओ परेण भवे सोही ॥ पहले दिन वे मुनि वहां के वास्तव्य मुनियों के लिए समनोज्ञ होते हैं। दूसरे आदि दिनों में वहां निष्कारण रहने पर शोधि अर्थात् प्रायश्चित्त में वृद्धि होती है। कारण (पूर्व गाथोक्त) से तीन दिन रहने पर भी वे समनोज ही होते हैं। तीन दिनों के पश्चात् प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १५५८. सत्तरत्तं तवो होइ, तओ छेओ पहावई । छेणऽच्छिन्नपरियाए, तओ मूलं तओ दुगं ।। सात दिनों तक तप, उसके पश्चात् छेद, छेद के द्वारा अच्छिन्न पर्यायवाले मुनि को मूल, तदनन्तर द्विक अर्थात् अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। १५५९.मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुया य होंति गुरुगा य ।
छम्मासा लघु गुरुगा, छेओ मूलं तह दुर्ग च ॥ पहले दिन समनोज्ञ होते हैं दूसरे दिन वहां रहने पर लघुक मास, तीसरे दिन गुरुक, चौथे दिन चार लघु, पांचवें दिन चार गुरू, छठे दिन छह मासलघु, सातवें दिन सात मास गुरु, आठवें दिन छेद, नौवें दिन मूल दसवें दिन अनवस्थाप्य, ग्यारहवें दिन पारांचिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
१५६०. अणणुण्णाए निक्कारणे व गुरुमाइणं चउण्हं पि । गुरुगा लहुगा गुरुगो, लहुओ मासो य अच्छंते ॥ अननुज्ञात तीन दिन के पश्चात् तथा निष्कारण गुरु आदि
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