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बृहत्कल्पभाष्यम्
चार प्रकार के मुनियों के रहने पर भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त का तैल आदि से अभ्यंगित शरीर वाला, कुत्ते का वाम पार्श्व से विधान है। वह इस प्रकार है-आचार्य को चार गुरुमास, दक्षिण पार्श्व में जाना, कुब्ज और वामन व्यक्ति का सामने वृषभ को चार लघुमास, अभिषेक को एक गुरुमास तथा मिलना-ये क्षेत्र में प्रवेश होने वाले व्यक्ति के लिए अप्रशस्त भिक्षु को एक लघुमास।
होते हैं, अपशकुन होते हैं। १५६१.नेहामु त्ति य दोसा, जे पुव्वं वण्णिया कइयमादी। १५६६.रत्तपड चरग तावस,रोगिय विगला य आउरा वेन्जा। ते चेव अणट्ठाए, अच्छंते कारणे जयणा।।
कासायवत्थ उद्धूलिया य कज्जं न साहिति॥ 'हम नहीं आयेंगे' इस प्रकार कहने वाले मुनियों के जो रक्तपट (बौद्ध भिक्षु), चरक, तापस, रोगी, विकल पूर्वोक्त अर्थात क्रयित आदि वसति को किराए पर दे देना, (शरीर के अंगों से रहित), आतुर-विविध दुःखों से व्याकुल, विक्रयिक द्रव्यों से वसति को भर देना-दोष होते हैं। प्रयोजन वैद्य, काषायवस्ववाले, उद्धूलित (भस्मलिप्स शरीर वाले)के बिना ऐसा कहने पर ये, उस ग्राम में रहने पर प्राप्त होते क्षेत्र में प्रवेश होते समय ये मिलते हैं तो यात्रा सफल नहीं हैं। कारण से वहां रहना पड़े तो यतनापूर्वक एक, दो, तीन होती। प्रस्तुत दो श्लोकों में अपशकुन बताए गए हैं। दिन रहकर अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर देना चाहिए। १५६७.नंदीतूरं पुण्णस्स दसणं संख-पडहसदो य। १५६२.भत्तट्ठिया व खमगा, पुव्विं पविसंतु ताव गीयत्था। भिंगार-छत्त-चामर-वाहण-जाणा पसत्थाई।।
परिपुच्छिय निद्दोसे, पविसंति गुरू गुणसमिद्धा॥ १५६८.समणं संजय दंतं, सुमणं मोयगा दधिं । यदि क्षपक मुनि भक्तार्थी होकर उस गांव में प्रवेश करना भीणं घंटं पडागं च, सिद्धमत्थं वियागरे। चाहते हैं तो वहां पहले गीतार्थ मुनि प्रवेश करें। वे शय्यातर (प्रस्तुत दो श्लोकों में शुभशकुन बताए गए हैं।) को पूछकर निर्दोष उपाश्रय का निश्चय कर लें, तदनन्तर नंदीतूर्य-बारह प्रकार के तूर वाद्यों का एक साथ बजना, गुणसमृद्ध गुरु प्रवेश करें।
पूर्णकलश का दर्शन, शंख और पटह का शब्द सुनाई देना, १५६३.बाहिरगामे वुच्छा, उज्जाणे ठाण वसहिपडिलेहा।। भंगार-झारी, छत्र, चामर, वाहन-हाथी, घोड़े आदि तथा
इहरा उ गहियभंडा, वसहीवाघाय उड्डाहो॥ यान-शिबिका आदि-ये सारे प्रशस्त होते हैं। रात्री में गांव के बाहर रहकर, प्रातःकाल गांव के उद्यान श्रमण, संयत, दांत, पुष्प, मोदक, दही, मत्स्य, घंटा, में ठहरें। फिर मुनियों को वसति को प्रत्युपेक्षा करने के लिए पताका देखकर या सुनकर जानना चाहिए या कहना चाहिए गांव में भेजें। यदि वसति की प्रत्युपेक्षा किए बिना जाते हैं कि प्रवेश का प्रयोजन सिद्ध होगा।
और यदि वह वसति किसी को किराए पर दे दी गई हो तो १५६९.पविसंते आयरिए, सागरिओ होइ पुव्व दट्ठव्यो। मुनि अपने वस्त्र-पात्रों को लिए-लिए वसति की गवेषणा में
अद्दट्टण पविट्ठो, आवज्जइ मासियं लहुयं॥ घूमते हैं तो लोगों में उड्डाह होता है।
वसति में प्रवेश करने से पूर्व आचार्य को चाहिए कि वे १५६४.तम्हा पडिलेहिय साहियम्मि पुव्वगत असति सारविए। शय्यातर को देख ले। सागारिक को देखे बिना प्रवेश करने
फड्डगफड्ड पवेसो, कहणा न य उट्ठऽणायरिए। पर आचार्य को लधुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए वसति की प्रत्युपेक्षा कर शय्यातर को कहे- १५७०.आयरियअणुट्ठाणे, ओभावण बाहिरा अदक्खिन्ना। आचार्य आ गए हैं। यह कहकर यदि वसति पहले समागत
कहणं तु वंदणिज्जा, अणालवंते वि आलावो। क्षेत्र प्रत्युपेक्षकों द्वारा प्रमार्जित हो तो उचित है। अन्यथा आचार्य के आने पर यदि धर्मकथी मुनि नहीं उठता है तो स्वयं उसका सम्मान करे। एक धर्मकथिक मुनि को वसति आचार्य की लघुता होती है। शिष्यों के प्रति लोग कहते हैं-ये में छोड़कर शेष मुनि आचार्य को निवेदन करे। आचार्य वहां लोक व्यवहार से बाह्य हैं, गुरु के प्रति इनकी अनुकूलता कुछ साधुओं के साथ आएं। शेष साधु पृथक्-पृथक रूप से नहीं है। धर्मकथी मुनि शय्यातर को यह कहे कि गुरु को वहां प्रवेश करे। वह धर्मकथिक मुनि आचार्य के आने पर वंदना करो। तदनन्तर गुरु शय्यातर के न बोलने पर भी उठे, शेष मुनियों के आने पर न उठे, क्योंकि धर्मकथा में । उससे आलाप करे। यदि आलाप नहीं करते हैं तो ये दोष व्याघात होता है।
होते हैं१५६५.मइल कुचेले अभंगियल्लए साण खुज्ज वडभे या। १५७१.थद्धा निरोवयारा, अग्गहणं लोकजत्त वोच्छेदो। एयाइं अप्पसत्थाई होति गाम अइंताणं॥
तम्हा खलु आलवणं, सयमेव य तत्थ धम्मकहा॥ शरीर और वस्त्रों से मलिन, जीर्ण परिधान वाला व्यक्ति, शय्यातर सोचता है ये आचार्य आत्माभिमानी हैं,
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