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पहला उद्देशक
निरुपकार - कृतघ्न हैं, अग्रहण- मेरे प्रति इनके मन में कोई आदरभाव नहीं है, लोकयात्रा -लोक व्यवहार को भी ये नहीं जानते। शय्यातर रुष्ट होकर अन्यान्य द्रव्यों का व्यवच्छेद कर देता है। इसलिए आचार्य को चाहिए कि वे शय्यातर से आलाप करें और स्वयं ही धर्मकथा करे।
१५७२. वसहिफलं धम्मकहा, कहणमलछीओ सीस बाबारे
पच्छा अइंति वसहिं, तत्थ य भुज्जो इमा मेरा ॥ धर्मकथा करते हुए आचार्य वसति के फल का निरूपण करते हैं। यदि धर्मकयालब्धि से संपन्न न हो तो वे धर्मकथा - लब्धिसंपन्न शिष्य को इस कार्य में व्याप्त करते हैं। तदनंतर वसति में प्रवेश करते हैं वहां पुनः यह मर्यादा सामाचारी है।
१५७३. मज्जाया-ठवणाणं, पवत्तगा तत्थ होंति आयरिया |
जो उ अमज्नाइल्लो, आवज्जह मासियं लहुयं ॥ मर्यादा अर्थात् सामाचारी और दान आदि कुलों की स्थापना के प्रवर्तक आचार्य होते हैं जो इन मर्यादाओं का पालन नहीं करता उसे लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। १५०४. पडिलेहण संधारण, आयरिए तित्रि सेस एक्केकं ।
विंटियउक्खेवणया पविसह ताहे य धम्मकही ॥ १५७५. उच्चारे पासवणे, लाउअनिल्लेवणे अ अच्छणए ।
करणं तु अणुन्नाए, अणणुनाए भवे लहुओ ॥ संस्तारकभूमी की प्रत्युपेक्षा करते हैं। आचार्य के तीन संस्तारकभूमियां होती है-निवात, प्रवात, निवात प्रवास शेष साधुओं के एक-एक संस्तारकभूमी होती है तब सभी मुनि अपनी-अपनी संस्तारकभूमी में अपनी-अपनी विटिका का उत्क्षेपण करते हैं। जब धर्मकधी मुनि प्रतिश्रय के भीतर प्रवेश करता है तब क्षेत्रप्रत्युपेक्षक शय्यातर द्वारा अनुज्ञात उच्चार, प्रस्रवण, अलाबू के कल्प करने योग्य, निर्लेपनपुतप्रक्षालन योग्य, स्वाध्याय करने वालों के बैटने योग्य - इन सभी भूमियों को दिखाता है और कहता है-इन-इन भूमियों में तद-तद् कार्य करने हैं। अननुज्ञात भूगी में करने पर मासलघु का प्रायश्चित्त है। यह मर्यादा सामाचारी है। १५७६. भत्तड़िया व खमगा अमंगलं चोयणा निणाहरणं ।
जइ खमगा वदंता, दाइंतियरे विहिं वोच्छं ॥ क्षेत्र में प्रवेश करने वाले साधु भक्तार्थी अथवा क्षपक होते हैं। यदि क्षपक होते हैं तो जिज्ञासु कहता है यह तो प्रारंभ से ही अमंगल हो गया क्योंकि उपवास आदि कर प्रवेश कर रहे हैं आचार्य यहां जिनेश्वरदेव का उदाहरण कहते हैं। जिनदेव तपस्या में ही निष्क्रमण करते हैं। उनका अमंगल नहीं है तो
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यहां भी अमंगल नहीं होता। यदि क्षपक चैत्यवंदन के लिए जाते हैं तो उन्हें उसी समय स्थापनाकुल दिखा देते हैं। अब भक्तार्थियों की विधि बताऊंगा।
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१५७७. सब्बे दहुं उग्गाहिएण ओवरिय भय समुप्पज्जे ।
लम्हेल दोहि तिहिं वा उग्गाहिय चेहए वंदे ॥ चैत्यवन्दन के समय सभी साधुओं को पात्र के साथ आते हुए देखकर श्रावक सोचता है ये सभी औवरिक पेटू हैं। उसके मन में यह भय पैदा हो जाता है कि मैं इतने साधुओं को भोजन कैसे दूंगा? इसलिए एक दो या तीन साधु पात्रों को लेकर तथा शेष बिना पात्र साथ लिए आचार्य के साथ चैत्यवंदन के लिए जाएं।
१५७८. सद्भाभंगोऽणुग्गाहियम्मि ठवणाइया भवे दोसा । घरचेश्य आयरिए, कयवयगमणं च गहणं च ।। यदि एक भी साधु पात्र को लेकर नहीं जाता है तो भक्तपान का निमंत्रण देने वाले श्रावक की श्रद्धा टूट जाती है। तथा यदि उसको यह कहा जाता है कि हम पात्र लेकर आते हैं तो स्थापना आदि दोष हो सकते हैं। पात्रोद्वाहक कुछेक साधुओं के साथ आचार्य गृहचैत्यवंदन के लिए जाए। श्रावक यदि भक्तपान के लिए निमंत्रित करे तो वहां प्रासुक भक्तपान ग्रहण करे।
१५७९. वाणे अभिगम सहे, सम्मते खलु तहेब मिच्छते। मामाए अचियत्ते, कुलाई दाइति गीयत्था ॥ १५८०. दाणे अभिगम सहे सम्मते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाई ठाविंति गीयत्था ॥ १५८१. दाणे अभिगम स सम्मते खलु तहेब मिच्छते।
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मामाए अचियत्ते, कुलाई अठविंति चउगुरुगा ॥
गीतार्थ मुनि सभी साधुओं को दानश्राद्ध, अभिगमश्राय (सम्यग्दृष्टि अणुव्रती), अविरतसम्यग्दृष्टिश्राद्ध, आभिराहिक मिथ्यादृष्टि, मामक तथा अचियत्त' - अप्रीतिकर - इनके कुलों की जानकारी देते हैं।
गीतार्थ इन सभी कुलों की स्थापना करते हैं अर्थात् इन कुलों में जाना है और इन कुलों में नहीं ऐसी व्यवस्था करते हैं।
इन कुलों की व्यवस्थापना न करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त विहित है।
१५८२, कयउस्सग्गाऽऽमंतण, अपुच्छणे अकहिएगयर दोसा
ठवणकुलाण व ठवणं, पविसइ गीयत्थसंघाडो । स्थान पर आकर सभी साधु कायोत्सर्ग करे फिर गीतार्थ मुनि सभी साधुओं को गुरुपादमूल में आने के लिए निमंत्रित करे। आचार्य क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को पूछे कि कौन कौन
१. यस्त्वीर्ष्यालुतयैव साधुषु गृहं प्रविशत्सु महदप्रीतिकं स्वचेतसि करोति वाचा न किमपि ब्रूते एष देशभाषया अचियत्तः । (वृ. पृ. ४६३)
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