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________________ १६४ =बृहत्कल्पभाष्यम् से कुलों में प्रवेश करना है और कौन-कौन से कुलों में प्रवेश १५८७.अन्नो चमढण दोसो,दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। निषिद्ध है? यदि आचार्य न पूछे अथवा क्षेत्रप्रत्युपेक्षक न खीणे दुल्लभदव्वे, नत्थि गिलाणस्स पाउग्गं॥ बताए तो आचार्य को अथवा क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को संयम- 'चमढण'-उद्वेजन का अन्य दोष यह है। अन्यान्य विराधना तथा आत्मविराधना आदि दोष प्राप्त होते हैं। फिर मुनियों द्वारा ले लिए जाने पर द्रव्य की क्षीणता हो जाती है आचार्य प्रवेश करने योग्य स्थापनाकुलों की तथा प्रवेश न और उद्गम (वस्तुओं को निष्पन्न करना) भी शुद्ध नहीं होता। करने योग्य स्थापनाकुलों की स्पष्ट स्थापना करते हैं। फिर दुर्लभद्रव्य के क्षीण हो जाने पर, ग्लान के लिए आवश्यक वह आचार्य कहते हैं-प्रवेष्टव्य स्थापनाकुलों में भी एक ही प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलता। गीतार्थ संघाटक प्रवेश करे। १५८८.दव्वक्खएण पंतो, इत्थिं घाइज्ज कीस ते दिन्नं। १५८३.गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्धे। भद्दो हट्ठपहट्ठो, करेज्ज अन्नं पि साहूणं॥ गाम-नगर-निगमेसुं, अइसेसी ठावए सही। एक प्रान्तव्यक्ति की भार्या श्राविका थी। उसने अनेक वर्षावास तथा ऋतुबद्धकाल में गच्छ का यह कल्प है कि ___मुनियों को अनेक प्रकार की वस्तुएं दे दीं। द्रव्यक्षय को गांव, नगर और निगम में जो अतिशायी कुल हों, जैसे जानकर उस प्रान्त व्यक्ति ने पत्नी को पीटते हुए कहा तूने दानश्रद्धावाले आदि की स्थापना करे। उन साधुओं को सारी वस्तुएं क्यों दे दी. १५८४.किं कारणं चमढणा,दव्वखओ उग्गमो वि य न सुज्झे। इसी प्रकार एक भद्र व्यक्ति ने साधुओं को दी गई ___ गच्छम्मि नियय कज्जं, आयरिय-गिलाण-पाहुणए। वस्तुओं को जानकर, बहुत हृष्ट-प्रहृष्ट हुआ और साधुओं शिष्य ने पूछा-क्या कारण है कि स्थापनाकुलों में एक के लिए अन्य अवगाहिम आदि द्रव्य भी करवाए देने की ही संघाटक जाए? आचार्य कहते हैं अनेक संघाटक जाने व्यवस्था की। पर 'चमढणा' अर्थात् गृहस्वामी के मन में उद्वेलन होता १५८९.जड्डे महिसे चारी, आसे गोणे य जे य जावसिया। है। द्रव्यों-स्निग्ध-मधुर आदि द्रव्यों का क्षय होता है, एएसिं पडिवक्खे, चत्तारि उ संजया होति॥ उद्गम दोष की भी शुद्धि नहीं होती। गच्छ में निश्चित ही (प्राघूर्णक आने पर उनके स्वभावानुकूल आतिथ्य करे।) प्रायोग्य द्रव्यों का प्रयोजन होता है। क्योंकि गच्छ में जैसे-हाथी, महिष, अश्व और बैल-ये यावसिक होते हैं। मुद्ग, आचार्य, ग्लान, प्राघूर्णक के लिए उन द्रव्यों का प्रयोजन माष आदि से तथा अनुकूल चारी से इनका पोषण होता है। इनके होता है। प्रतिपक्ष'-सदृशपक्ष वाले चार प्रकार के संयत होते हैं। १५८५.पुव्विं पि वीरसुणिया, भणिया भणिया पहावए तुरियं। १५९०.जडो जं वा तं वा, सुकुमालं महिसओ महुरमासो। सा चमढणाए सिग्गा, निच्छइ द8 पि गंतुं जे ॥ ___ गोणो सुगंधिदव्वं, इच्छइ एमेव साहू वि॥ ___एक शिकारी के पास शुनिका थी। वह शिकारी बिना ___ हाथी 'यह वह'-सब कुछ खा लेता है। महिष सुकुमाल शस्त्रास्त्र के शिकार करता था। इसलिए वह वीर कहलाता द्रव्य खाता है। अश्व मधुर द्रव्य और बैल सुगंधित द्रव्य है। उसकी शुनिका वीरशुनिका कहलाती थी। वह वीर- खाने की इच्छा करता है। इसी प्रकार साधु भी चार प्रकार शुनिका पहले श्वापद न देखने पर भी 'छीत्कृत छीत्कृत' के आहार की आकांक्षा करते हैं-(एक कहता है-ठंडा या करने पर शीघ्र ही इतस्ततः दौड़ती थी। कई बार वह निरर्थक गरम, जैसा भी मिले वैसा आहार ले आना। मुझे पेट भरना ही उद्वेजित की गई। अतः वह श्रान्त हो गई। अब वह है। दूसरा कहता है-स्नेहरहित पूपलिका, जो सुकुमाल हो, प्रत्यक्षतः श्वापद को देखने पर भी, 'छीत्कृत छीत्कृत' करने वह ले आना। तीसरा कहता है-मधुर आहार ले आना। चौथा पर भी जाना नहीं चाहती थी। कहता है-अन्न-पान जो निष्प्रतिगंध वाला हो, वह ले आना। १५८६.एवं सढकुलाई, चमढिज्जंताई अन्नमन्नेहिं।। प्राघूर्णक साधुओं के लिए इस प्रकार का आहार स्थापना नेच्छंति किंचि दाउं, संतं पि तहिं गिलाणस्स। कुलों में ही प्राप्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं।) इसी प्रकार अन्यान्य मुनियों द्वारा श्राद्धकुलों को १५९१.एवं च पुणो ठविए, अप्पविसंते इमे भवे दोसा। उद्वेजित कर दिए जाने पर वे वस्तुओं के होने पर भी कुछ वीसरण संजयाणं, विसुक्कगोणीइ आरामे॥ भी देना नहीं चाहते। परिणामस्वरूप ग्लान मुनियों को इस प्रकार 'चमढणा' के दोष कहे गए हैं। यदि स्थापनापरितापना होती है। उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। कुलों सर्वथा स्थापित हो जाते हैं, और साधु उनमें नहीं जाते १.प्रतिरूपः पक्षः प्रतिपक्षः सदृशपक्षः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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