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पहला उद्देशक =
हैं तो ये दोष होते हैं-संयतों का विस्मरण हो जाता है तथा काल से पहले ही भक्त का निष्पादन कर देता है। अथवा वह भिक्षा दातव्य है-इस नियम का अभाव होने के कारण श्रावक मुनि भिक्षा के लिए बहुत समय तक नहीं घूमता। इसलिए भिक्षा देना भूल जाते हैं। यहां दो दृष्टांत हैं-विशुष्क गाय उसे कुछ नहीं मिलता। तब वह यत्किचित् लेकर आ जाता तथा आराम।
है। उसे खाने पर गुरु आदि के ग्लानत्व हो जाता है। १५९२.अलसं घसिरं सुविरं,खमगं कोह-माण-माय-लोहिल्लं। १५९६.गिण्हामि अप्पणो ता, पज्जत्तं तो गुरूण घिच्छामि। कोऊहल पडिबद्धं, वेयावच्चं न कारिज्जा।
घेत्तुं च तेसि घिच्छं, सीयल-ओसक्क-ओमाई।। स्थापनाकुलों में प्रवेश करने वाले मुनि आलसी, बहुभक्षी मुनि को भिक्षा के लिए स्थापनाकुलों में व्याप्त बहुभक्षी, निद्रालु, क्षपक, क्रोधी, अहंकारी, मायी, लोभी, करने पर वह सोचता है मैं अपने लिए पर्याप्त भोजन ग्रहण कर कुतूहली, प्रतिबद्ध-सूत्रार्थग्रहण करने में आसक्त, हों तो लूं, तदनन्तर गुरु के लिए ले लूंगा। अथवा गुरु के योग्य भिक्षा आचार्य इनको उन कुलों में न भेजें, इनसे वैयावृत्ति न कराए। ग्रहण कर फिर मैं मेरे लिए भोजन ग्रहण करूंगा। यह सोचकर १५९३.तिसु लहुओ तिसु लहुया,
यदि वह पहले गुरु के लिए सामग्री लेता है फिर अपने लिए गुरुओ गुरुया य लहुग लहुगो य।। तो गुरु का प्रायोग्य आहार शीतल हो जाता है। अथवा पेसग-करितगाणं,
स्थापनाकुलों में भिक्षाटनवेला से पूर्व प्रवेश करने पर
आणाइ विराहणा चेव॥ 'अवष्वष्कण' आदि दोष होते हैं। यदि वेलातिक्रम के भय उपरोक्त दोषों से युक्त व्यक्ति को जो आचार्य अपनी से पहले जाता है तो अवम न्यूनता होती है, उदरपूर्ति नहीं वैयावृत्ति में व्याप्त करता है अथवा जो इन दोषों से युक्त हो होती। वह वैयावृत्ति करता है तो प्रेषक और कारक दोनों को १५९७.परिताविज्जइ खमओ,अह गिण्हइ अप्पणो इयरहाणी। प्रायश्चित्त आता है। तीन अर्थात् आलसी, बहुभक्षी और
अविदिन्ने कोहिल्लो, रूसइ किं वा तुम देसि॥ निद्रालु-लघुमास, तीन-क्षपक, क्रोधी और मानी-गुरुमास, क्षपक यदि भिक्षाटन करता हुआ गुरु के प्रायोग्य भिक्षा मायावी-गुरुमास, लोभी-चार गुरुमास, कुतूहली-चारलघु, ग्रहण करता है तो स्वयं परितप्त होता है और यदि स्वयं के सूत्रार्थप्रतिबद्ध- लघुमास तथा आज्ञाभंग और संयम तथा लिए ग्रहण करता है तो इतर अर्थात् आचार्य आदि के आत्मविराधना- दोनों होती हैं।
हानि-परितापना होती है। क्रोधी भिक्षाटन करता है तो भिक्षा १५९४.ता अच्छइ जा फिडिओ,
न देने पर वह गृहपति पर रुष्ट हो जाता है और कहता सइकालो अलस-सोविरे दोसा। -तुम क्या-कितना दोगे? गुरुमाई तेण विणा,
१५९८.ऊणाणुट्ठमदिन्ने, थद्धो न य गच्छए पुणो जं च। विराहणुस्सक-ठवणादी॥
माई भद्दगभोई, पंतेण व अप्पणो छाए। आलसी और निद्रालु को इस कार्य में नियोजित करने पर अभिमानी मुनि यदि भिक्षा के लिए जाता है, वह गृहिणी भिक्षा का उपयुक्त काल अतिक्रांत हो जाता है और तब वे द्वारा कम दिए जाने पर, अभ्युत्थान आदि न करने पर अथवा भिक्षा के अतिक्रांत काल में भिक्षा के लिए घूमते हैं और जो कुछ भी न देने पर वह पुनः उस घर में नहीं जाता। उस घर कुछ प्राप्त होता है वह ले आते हैं। प्रायोग्य द्रव्य नहीं में प्रवेश के बिना प्रायोग्य द्रव्य नहीं मिलते। इससे परितापना मिलता। उसके बिना गुरु आदि (बाल, वृद्ध, ग्लान आदि) होती है। मायावी मुनि भद्रक-भद्रक द्रव्य स्वयं खाकर, की विराधना होती है। श्रावक प्रायोग्य का उत्ष्वष्कण कर अन्त-प्रान्त लेकर आता है। अथवा वह प्रान्त आहार से देते हैं। तथा उपस्कृत अन्न-पान की स्थापना करने पर अपने योग्य भद्रक आहार को आच्छादित कर लाता है। स्थापनादोष होता है।
१५९९.ओभासइ खीराई, दिज्जंते वा न वारई लुद्धो। १५९५.अप्पत्ते वि अलंभो, हाणी ओसक्कणा य अइभहे। जेणेगविसणदोसा, एगस्स वि ते उ लुद्धस्स।
अणहिंडतो य चिरं, न लहइ जं किंचि वाऽऽणेइ॥ लोलुप मुनि यदि भिक्षाटन करता है तो वह दूध आदि भिक्षा के लिए अप्राप्त काल में घूमने पर कुछ भी प्राप्त मांग कर लेता है अथवा गृहस्थ द्वारा दिए जाने वाले स्निग्ध नहीं होता। तब आचार्य आदि की हानि होती है, उन्हें भूखा आदि पदार्थों की वह वर्जना नहीं करता। अनेक संघाटक यदि रहना पड़ता है। अतिभद्रक गृहपति अवष्वष्कण-विवक्षित स्थापनाकुलों में प्रवेश करते हैं तो जो चमढणा आदि अनेक १.२. दृष्टान्त के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं.६२,६३।
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